देश की राजनीति, यूपी चुनाव और जातियों का जुगाड़

Samachar Jagat | Friday, 06 Jan 2017 02:22:15 PM
Politics of country , UP election and Manipulations of Casteism

       - नरेन्द्र बंसी भारद्वाज-
भारतीय संविधान जहां भारतीय नागरिकों को समानता का अधिकार देकर देश को अखंड व सम्प्रभु बनाने की बात कहता हैं।  वहीं देश के राजनीतिक दल सात दशकों से जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र, संप्रदाय के नाम वोट बटोर कर देश की अंखडता को खंड-खंड करते दिखाई पड़ते हैं।

 आज चर्चा का विषय फरवरी में प्रस्तावित पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में जातिवाद के जहर को लेकर हैं। हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने भी देश की राजनीति में जातिय आधार को अवैध करार दिया हैं। लेकिन देश के सभी राजनीतिक दल इसे दरकिनार कर अपनी वहीं पुरानी परिपाटी जातिवाद की राजनीति पर चलकर चुनावी वैतरणी को पार करने की जुगत में हैं। देश के पांच राज्य मणिपुर, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की तारीखें घोषित होने के बाद देश की राजनीति में उफान सा आ गया हैं। इन चुनावों में सबसे अहम उत्तर प्रदेश के चुनाव हैं जो कि शुरू से ही केन्द्रिय सत्ता को पाने का केन्द्र हैं।

यहां से अब तक देश को सर्वाधिक प्रधानमंत्री मिले हैं। इस सूबे से लोकसभा और राज्यसभा से सर्वाधिक सदस्य पहुंचते हैं और संसद की रीती-नीतियों और क्रियाकलापों को प्रत्यक्ष और पूर्णतया प्रभावित करते हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले यहां की राजनीति में बवंडर खडा हो चुका हैं। सभी दल सत्ता की चाबी पाने के लिए कमर कस चुके हैं। इसी क्रम में पीएम नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी का दाव खेलकर अपने विरोधियों सपा, बसपा और कांग्रेस समेत सभी दलों के होश फाख्ता कर दिए हैें।

भाजपा यूपी चुनाव जीतकर राज्यसभा में अपना जनाधार बढ़ाने की जुगत में हैं। क्योंकि यूपी विधानसभा चुनाव के तुरंत बाद ही इस सूबे में राज्यसभा की दस सीटों पर भी चुनाव होने है। भाजपा विधानसभा चुनाव के साथ राज्यसभा की इन सभी दस सीटों को भी जितना चाहती है।  जिससे वह अपनी लंबित महत्वाकांक्षी योजनाओं को अमलीजामा पहना सकें। लेकिन इस चुनाव में भाजपा ने अभी तक मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं किया हैं। भाजपा के केन्द्रिय नेतृत्व को ये डर है कि अगर चुनाव पूर्व इसकी घोषणा हुई तो पार्टी में कलंह के साथ भीतरघात और घमासान मच जाएगा। लेकिन अगर भाजपा ने समय रहते इसकी घोषणा नहीं की तो दिल्ली और बिहार के जैसे यूपी में भी सत्ता पाने का सपना टूट सकता हैं।

यूपी चुनाव से पहले समाजवादियों की कलह को लेकर राजनैतिक विश्लेषकों की माने तो यह कलंह सत्ता पाने के लिए सोचा समझा राजनैतिक ड्रामा मात्र हैं। जिसमें अखिलेश ने गुंडागर्दी का विरोध कर अपनी स्वच्छ छवि कायम करके युवा और सवर्ण वोटरों को लुभाने का प्रयास किया। वहीं दूसरा समाजवादी पार्टी खेमा मुस्लिम और यादव वोटरों की जुगत में हैं। जो चुनाव परिणाम के बाद सत्त हासिल करने के लिए एकीकृत हो जाएगा। वहीं मायावती इस कलह को भाजपा के लिए सीधा फायदा होने की बात कहकर मुस्लिम वोटरों को लुभाने की कोशिश कर रहीं हैं। मायावती पहले भी इसी तरह जातिय जोड़ तोड़ बैठाकर सूबे की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं और इस बार भी अपने परंपरागत दलित वोट बैंक के साथ मुस्लिम और ब्रह्मणों को अपनी ओर मिलाने में कोई कसर बाकी नहीं छोडऩा चाहती हैं।

इसे के चलते बसपा की उम्मीदवार सूची में 97 मुस्लिम और 66 ब्रह्मणों के नाम है। जो जाति के आधार पर टिकट पाकर जाति के दम पर ही चुनावी वैतरणी वार करने की कोशिश करेंगे। बरहाल यह तो आने वाला मार्च का माह ही बतायेगा सूबे कि सत्ता का सिरमौर  कौन बनता हैं? लेकिन सभी राजनैतिक दलों को संविधान की आत्मा की उस पहलु जिसे अखंडता कहा जाता हैं को ध्यान में रखकर अपनी नैतिक  जिम्मेदारियों को समझते हुए  जातिवाद से दूरी बनानी चाहिए। 
                                                                                                                                                                                                                      साभार  



 

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