जैनाचार्य विद्यासागर जी मुनिराज ने पहली बार जन-जीवन का रहस्य उद्घाटित किया है। आपके मतानुसार मानव जीवन दो सोपानों से जुड़ा हुआ है। एक सोपान जड़ (शरीर) है और दूसरा सोपान चेतना (जीवात्मा) है। संसार में यह सिद्धांत प्रचलन में है कि परोपकार ही धर्म है अथवा धर्म का सीधा सादा अर्थ परोपकार है।
समस्या यह है कि परोपकार किसका किया जाए? क्या जड़ (शरीर) से जुड़े तत्वों का किया जाए अथवा चेतन (जीवात्मा) से जुड़े तत्व का किया जाए?
उपकार या परोपकार वस्तु का नहीं हो सकता, निर्जीव जड़ का नहीं हो सकता है। सजीव व जीवात्मा का ही हो सकता है। उपकार या परोपकार क्रिया-साध्य नहीं है। यह आत्म-साध्य है।
परोपकार के लिए आत्मानोन्मुखी बनने की जरूरत है। आत्म-जागरण में आत्मा का स्वभाव कल्याणमय होना चाहिए। अहंकार से मुक्त होने पर आत्मा के दर्पण में झांका जा सकता है। जब तक दर्पण पर अहंकार की मिट्टी जमी रहेगी तब तक आत्मा के स्वरूप व झांकी नहीं हो पाएगी।
संसार में धार्मिक वे कहलाते हैं जो परोपकार करते हैं, यह सबकुछ दिखलाने के लिए किया जाता है। भूखे को रोटी, प्यासे को पानी, रोगी को औषधि, निरक्षर को अक्षर ज्ञान, कमजोर नेत्र वाले को चश्मा, निर्वस्त्र को वस्त्र, बेघर वाले को घर की व्यवस्था में सहयोग करना, सहभागीदारी निभाना सामाजिक व राष्ट्रीय दायित्व है, मानवीय कर्तव्य है, मानवोचित कार्य व सेवा है।
जो भी साधन उपयोग में लिए जा रहे हैं वे साधन ही हैं, साध्य नहीं हैं। साध्य परमात्मा है। आत्मा को परमात्मा से जोड़े रखना है। चेतन-अंश का मूल चेतन से जुड़ाव रहना अत्यावश्यक है (अंश का अंशी से जुड़ाव)। उपकार या परोपकार आत्म केंद्रित है। इसे पदार्थ केंद्रित नहीं बनाया जा सकता है।
व्यक्ति का भाव परोपकारी होना चाहिए न कि उसके द्वारा संग्रहीत पदार्थ परोपकारी कहलाने चाहिए। जब व्यक्ति यह त्रुटि सुधार ले कि वह पदार्थांे (जड़) को परोपकार न मानकर आत्मा (चेतन) को परोपकार का श्रेय प्रदान करे तो अपरिग्रह स्वत: स्थान ले पाए। अपरिग्रह के अभाव में अहिंसा भी बल प्राप्त नहीं कर पाती है। अहिंसा आत्मान्वेषी जीवन शैली है। अहिंसामय आचरण तब ही संभव है जब आत्म जागरण हो पाए। जड़ से दूरी बन पाए।
मानव के लिए आत्म जागरण ही परोपकार है। अत: परोपकार जीवन का ध्येय है। राग-द्वेष से मुक्त होना ही परोपकार है। मनुष्य द्वारा स्व-आत्मा का कल्याण समाज के लिए स्वत: अनुकरणीय है। अत: परोपकार का भाव चेतन से सम्बद्ध है, कृपया जड़ को बेवजह अहम् का शिकार न बनावे। चेतन शाश्वत है अत: पूज्य है व उपकारी है। वस्तुत: परोपकार जड़ का नहीं चेतन का होना चाहिए, चेतन द्वारा होना चाहिए, चेतन के लिए ही होना चाहिए। अत: आचार्यश्री वाणी नमन योग्य है।