बड़े नोटों को बंद करने के फैसले पर आम और खास लोगों की प्रतिक्रिया से सभी अवगत हैं। ज्यादातर इससे सहमत हैं कि इस फैसले से काले धन वालों को बड़ा झटका लगा है, लेकिन विपक्षी दल बेचैन हैं। कुछ तो खुद को उस जनता से भी ज्यादा परेशान दिखा रहे हैं जो बैंकों के सामने कतार में है। सबसे अधिक परेशान अरभवद केजरीवाल दिख रहे हैं, जिन्होंने एक समय खुद बड़े नोट बंद करने की पैरवी की थी।
पहले वे बड़े नोट बंद करने के फैसले को एक घोटाला बता रहे थे। फिर यह समझाने लगे कि मोदी ने अपने लोगों को यह फैसला पहले ही लीक कर दिया था। अब वह जनता की परेशानी का हवाला देकर सरकार पर निशाना साध रहे हैं। दूसरी परेशान नेता उस पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हैं जो नकली नोटों की खेप का एक प्रमुख प्रवेश द्वार रहा है। ममता भी जनता की परेशानी का उल्लेख कर रही हैं। यह वही ममता हैं जो कभी आए दिन बंगाल या कोलकाता बंद का आयोजन कर जनता की परेशानी बढ़ाने का काम करती थीं।
नोटबंदी से तीसरी परेशान नेता मायावती हैं, जिनके बारे में यह धारणा पुख्ता है कि वह टिकट बेचती हैं। राहुल गांधी भी नोटबंदी के खिलाफ न केवल मुखर हैं, बल्कि विपक्षी नेताओं में एक मात्र ऐसे बड़े नेता हैं जो बैंकों और एटीएम की लाइन में लगे दिखे हैं। उन्होंने अपने इन बयानों से देश का खूब मनोरंजन किया-‘मोदी ने अपने नेताओं को इस फैसले के बारे में पहले ही बता दिया था’ और ‘मुझे तो लगता है कि इस फैसले से वित्तमंत्री भी अवगत नहीं थे।’ सरकार को न केवल यह अहसास होना चाहिए कि विपक्षी नेता मुखर हैं तो इसीलिए कि नकदी संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा, बल्कि यह भी कि आम लोगों के मन में यह आशंका है कि कहीं काला धन फिर से सिर न उठा ले।
इस आशंका को दूर करने के लिए सरकार को ऐसे नियम-कानून बनाने होंगे जिससे लोग टैक्स बचाने के लालच में न आएं। टैक्स दरें कम और कर संबंधी नियम-कानून सरल हों तो लोग टैक्स बचाने के $फेर में अपनाए जाने वाले अनुचित तौर-तरीकों का आसानी से परित्याग कर सकते हैं, लेकिन ऐसी कोई अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती जो रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, तस्करी एवं अन्य आपराधिक गतिविधियों के जरिये काला धन बटोरते हैं।
नोटबंदी के बाद बैंकों में लगी कतारों का उल्लेख करते हुए विपक्षी नेताओं समेत कई अन्य लोग बड़े भोलेपन से पूछ रहे कि आखिर बड़े कारोबारी बैंकों की लाइन में क्यों नहीं दिख रहे? सच यह है कि वे पहले भी बैंकों में कम ही दिखते थे, लेकिन यदि यह मान लिया जाए कि अब तो उन्हें बैंकों के सामने ही दिखना चाहिए था तो भी क्या कारण है कि कोई नहीं पूछ रहा कि आखिर कोई नेता, नौकरशाह या फिर खनन, शराब माफिया बैंकों के सामने क्यों नहीं नजर आया? चूंकि यह सवाल पूछने से बचा गया इसलिए देश इस पर ध्यान नहीं दे सका कि टैक्स बचाकर अपने धन के एक हिस्से को काला करने वाले लोगों से ज्यादा बड़े गुनहगार रिश्वतखोर नेता और नौकरशाह हैं।
ऐसे ही नेताओं और नौकरशाहों के कारण तरह-तरह के माफिया एवं अन्य आपराधिक तत्व फलते-फूलते हैं। घूसखोर नेता और नौकरशाह किस तरह कहीं ज्यादा बड़े गुनहगार हैं और उनके खिलाफ ज्यादा सख्ती क्यों जरूरी है, इसे समझने के लिए हाल के ही दो प्रसंग पर्याप्त हैं।
पहला प्रसंग नोएडा को दिल्ली से जोडऩे वाले डीएनडी फ्लाईओवर का है। करीब 10 किलोमीटर का यह फ्लाईओवर नोएडा टोल ब्रिज नामक कंपनी ने तैयार किया। यह कंपनी समय-समय पर टोल दरें बढ़ाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इस तर्क से लैस है कि अभी लागत और सालाना निश्चित मुना$फे का लक्ष्य वसूल होना शेष है।
उसने हाईकोर्ट के समक्ष भी यही दलील दी थी कि उसे अपनी लागत 20 प्रतिशत वार्षिक वसूली के तहत करनी है और साथ ही फ्लाईओवर का मरम्मत और रखरखाव भी करना है। कंपनी के मुताबिक ऐसा नहीं हो पा रहा है। हाईकोर्ट ने इन दलीलों को खारिज करते हुए टोल वसूली खत्म करने का आदेश दिया था। इस आदेश को ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है।
सुप्रीम कोर्ट चाहे जिस नतीजे पर पहुंचे, यह जानना जरूरी है कि यह करार कंपनी की मदद कर रहा है कि उसे सालाना 20 प्रतिशत मुनाफा अवश्य होना चाहिए। करार की ऐसी ही शर्त के कारण कंपनी यह दलील दे रही है कि उसकी लागत 4600 करोड़ रुपये पहुंच चुकी है और अभी तो कई साल टोल वसूलने की सुविधा मिलनी चाहिए।
यह एक ऐसा करार है जिसकी मदद से कंपनी दशकों तक टोल वसूल सकती है। पता नहीं सच क्या है, लेकिन यह संदेह उभरना स्वाभाविक है कि कहीं ऐसी उदार शर्तों वाला करार इसीलिए तो नहीं बना कि कंपनी को घाटा दिखाते रहने में आसानी हो? इस संदेह की एक बड़ी वजह यह तथ्य है कि कई आला अधिकारी सेवानिवृत होने के बाद फ्लाईओवर बनाने वाली कंपनी में अपनी सेवाएं देते रहे।