अदालतें मुकदमों के बोझ से कराह रही है। लंबित तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमों में करीब आधे सरकारी है। लेकिन अब सरकार ने न्याय को रफ्तार देने और अदालतों से सरकारी मुकदमों को बोझ घटाने के लिए कमर कसली है। कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर सरकारी मुकदमों की समीक्षा करने को कहा है।
कानून मंत्री ने कहा है कि गैर जरूरी मुकदमों को या तो वापस लिया जाए या फिर उनका जल्दी निपटारा कराया जाए। इतना ही नहीं, सभी राज्य और मंत्रालय इस बारे में कानून मंत्रालय को तिमाही रिपोर्ट भेजेंगे, जिसमें बताया जाएगा कि कितने मुकदमेें वापस लिए गए, कितने में सुलह हुई और कितने निपटाएं गए? कानून मंत्री ने अदालतों में मुकदमों का बोझ और सरकार के सबसे बड़े मुकदमेबाज होने पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा है कि सरकार को बेवजह की मुकदमेेबाजी से बचना चाहिए।
देशभर की अदालतों में करीब 3.14 करोड़ मुकदमें लंबित है, जिसमें से 46 फीसदी सरकार के हैं। न्यायापालिका का ज्यादातर वक्त सरकार के मुकदमों में ही चला जाता है। न्यायपालिका का बोझ तभी घट सकता है, जबकि मुकदमें सोच-समझकर दाखिल किए जाएं। प्रसाद ने मंत्रालयों और सरकारी विभागों से कहा है कि वे प्राथमिकता के आधार पर लंबित मुकदमों की समीक्षा करें और उनके जल्द निस्तारण के लिए विशेष अभियान चलाएं। समीक्षा करते समय मुकदमा जारी रखने में आने वाले खर्च, लगने वाले समय और याचिकाकर्ता को मिलने वाली राहत के पहल को भी ध्यान में रखा जाए। सरकारी विभागों के बीच मुकदमेबाजी हतोत्साहित होनी चाहिए। बहुत जरूरी होने पर अंतिम उपाय के तौर पर ही मुकदमा किया जाए।
सरकार के वकील द्वारा बार-बार अदालती कार्यवाही में स्थगन लेने और बाधा डालने को गंभीरता से लिया जाए। कानून मंत्री ने न्याय विभाग के सचिव को मंत्रालय के साथ नियमित बैठक कर इसकी समीक्षा करने का निर्देश दिया है। भारत में अदालतों पर मुकदमों का जितना बोझा है, वैसा दुनिया में और कहीं नहीं है। कुल लंबित मामलों की तादाद जैसा कि पूर्व में ही बताया गया है, करीब सवा तीन करोड़ के आसपास पहुंच चुकी है। जिसमें से दो करोड़ से ज्यादा मामले निचली अदालतों में फैसलों का इंतजार कर रहे हैं।
निचली अदालतों में लंबित मामलों में दो तिहाई आपराधिक मामले हैं और ऐसे दस में से एक मामला दस साल से ज्यादा समय से लंबित है। निचली अदालतें जिस कछुआ चाल से चलती है, वह सबको मालुम है। अगर इसी रफ्तार में मुकदमों का निस्तारण हो, तो सिविल मामलों का पूरा निपटारा शायद ही कमी संभव हो पाए। और कोई नया मुकदमा दायर न होने की सूरत में भी, सारे आपराधिक मामले निपटाने में कम से कम तीस साल लगेंगे। मुकदमों का पहाड़ खड़ा हो जाने के पीछे जजों की कमी समेत कई कारण गिनाए जा सकते हैं।
भारत में आबादी के अनुपात में जजों की तादाद बहुत कम है। देश में मुकदमों की बाढ़ और न्याय मिलने में विलंब को लेकर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे टीएस ठाकुर की टिप्पणी थी कि अमेरिका में प्रति दस लाख की आबादी पर एक सौ पचास जज है, जबकि भारत में सिर्फ बारह। प्रति दस लाख की आबादी पर 50 जज रखने का प्रस्ताव है, जो आज तक अंजाम तक नहीं पहुंचा। जजों की संख्या बढ़ाने की कौन कहे, जजों के स्वीकृत पद भी समय पर नहीं भरे जाते। लेकिन मुकदमों के भारी बोझ के पीछे एक और वजह है, वह यह कि बहुत सारे मामले स्वयं सरकार की देन है। इसीलिए कानून मंत्री प्रसाद ने खुद इन मुकदमों की संख्या घटाने की पहल की है। उन्होंने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को पत्र लिखकर कहा है कि सरकार जबरन वादी होना बंद करे। न्यायपालिका का समय सबसे ज्यादा उन मामलों को जाता है, जिनमें सरकार पक्षकार है। यहां यह बता दें कि कानून मंत्री से पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी सरकार के सबसे बड़ी मुकदमेबाज होने पर चिंता जता चुके हैं। उन्होंने पिछले साल अक्टूबर में कहा था कि अगर कोई सरकारी कर्मचारी अपनी नौकरी से जुड़े मामले में अदालत की शरण में जाता है और फैसला उसके पक्ष में होता है, तो उस फैसले को मानक मानकर हजारों अन्य कर्मचारियों को वैसे ही लाभ दिए जाने चाहिए ताकि मुकदमों का बोझ घटाया जा सके।
लेकिन अब तक होता यह रहा है कि बहुत सारे मामलों में सरकार निहायत अनावश्यक होने पर भी अपील दायर कर देती है। इसके अलावा बहुत से सरकारी महकमें अंतर्विभागीय विवादों को आपस में सुलझाने के बजाए अदालत में पहुंच जाते हैं। यह अच्छी बात है कि सरकार के बेवजह पक्षकार बनने की व्यर्थता का अहसास हमारे नीति नियंताओं में बढ़ रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे मुकदमों की तादाद घटेगी।
पर यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बहुत सारे गैर जरूरी मुकदमें असहमति तथा विरोध की आवाज कुचलने के इरादे की देन होते हैं। सरकार क्या इस मामले में भी संयम का परिचय देगी? मुकदमों का बोझ तेजी से घटाने के लिए भी प्रशासनिक सुधार एक अहम तकाजा है। प्रशासन से न्याय न मिल पाने की ढेर सारी शिकायतें बाद में अदालत पहुंच जाती है और मुकदमें का रूप ले लेती है। अगर प्रशासनिक तंत्र अपने कर्मियों तथा लोक शिकायतों के प्रति पर्याप्त संवेदनशील और जवाबदेह हो, तो बहुत सारे मुकदमें पैदा ही नहीं होंगे।