विश्व की प्रमुख रेटिंग एजेंसी ‘फिच’ ने अपनी ताजा रिपोर्ट में नोटबंदी के असर को देखते हुए अगले वर्ष के लिए भारत की विकास दर के अनुमान को घटाकर 6.9 फीसदी कर दिया है। इसी प्रकार एक गैर सरकारी संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अध्ययन ये यह बात सामने आई है कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिश पर अमल के बाद से मुख्य सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में खर्च पर कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई है।
अध्ययन में 17 राज्यों के बजट को शामिल किया गया है। ये वे राज्य हैं, जिनका कुल राष्ट्रीय खर्च में 80 फीसदी हिस्सा है। अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 2014-15 और 2016-17 के बजट में शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास आदि के लिए रखे गए मद में मामूली वृद्धि ही हुई है। शिक्षा पर खर्च में बढ़ोतरी 14.2 से 14.6, स्वास्थ्य पर 3.9 से 4 और ग्रामीण विकास पर 5.8 से 6 प्रतिशत तक हुई।
अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें, तो इसे वृद्धि नहीं माना जाएगा। वित्त आयोग की सिफारिशों के मुताबिक राज्य को स्वेच्छा से खर्च के लिए दिए जाने राजस्व का हिस्सा 32 से बढ़ाकर 42 फीसदी कर दिया गया था। लेकिन इसके साथ ही केंद्र प्रायोजित योजनाओं के तहत राज्यों को मिलने वाले धन में कटौती कर दी गई है। यानी कुल मिलाकर राज्यों को मिलने वाले धन में ज्यादा फर्क नहीं पड़ा।
बदलाव सिर्फ यह आया है कि उनके पास ऐसा धन ज्यादा हो गया, उधर केंद्र का उन योजनाओं पर खर्च घट गया। ताजा अध्ययन रिपोर्ट का संकेत है कि राज्यों ने प्रमुख सामाजिक क्षेत्रों को प्राथमिकता नहीं दी। अपने देश की हकीकत यह है कि ज्यादातर पार्टियों के पास विकास का कोई एजेंडा नहीं है।
उनमें ज्यादातर तमिलनाडु मॉडल का पालन कर रही है, जहां अन्ना द्रमुक और द्रमुक ने उपहार बांटकर वोट खरीदने को राजनीति का सफल फार्मूला बना रखा है। यह प्रवृति सारे देश में फैली है। ममता बनर्जी हों या अखिलेश यादव, नवीन पटनायक या नीतिश कुमार कोई इसका अपवाद नहीं है।
अब विचारणीय है कि इस रूझान के बीच दीर्घकालिक विकास जिसमें मानव विकास सर्वोपरि हो उसका क्या भविष्य है? दुनिया का अनुभव यह है कि आज वे देश विकास की सीढ़ी पर ऊपर है, जिन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य को सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी। न सिर्फ चीन जैसा कम्युनिस्ट देश बल्कि पूंजीवाद के गढ़ देश भी इसी मॉडल से आगे बढ़े हैं। लेकिन भारत में पिछले ढ़ाई दशक में उदारीकरण की नीति लागू होने के बाद शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों विषयों को निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया है। आज भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में कल्याण या सेवा की बात तो जाने दीजिए, दोनों ही क्षेत्रों में कारोबार शुरू हो गया है।
इन औद्योगिक उत्पादन की तरह चलाया जा रहा है। अब डर इस बात का है कि सरकार इन दोनों ही क्षेत्रों से किनारा काले और पूरी तरह ये उद्योगों का स्वरूप ले लें।