सरकार के सामने गरीबी को साधने की बड़ी चुनौती

Samachar Jagat | Saturday, 24 Sep 2016 04:33:09 PM
The challenge of managing the government's poverty

देश में गरीब कौन है? इस सवाल का जवाब ढ़ूंढऩे के लिए मोदी सरकार नए सिरे से जुट गई है। नीति आयोग की टास्क फोर्स ने बीपीएल परिवार पहचानने के लिए पीएमओ को नया पैनल गठित करने का सुझाव दिया है। यह टास्क फोर्स नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढिय़ा के नेतृत्व में गरीबी मिटाने का रोडमैप तैयार कर रहा था।

 इसका प्रमुख कार्य गरीबी विरोधी कार्यक्रमों की रणनीति तैयार करना था। टास्क फोर्स ने अपनी रिपोर्ट में पीएमओ को गरीबी की नई परिभाषा तय करने में राज्यों की सक्रिय भागीदारी का सुझाव भी दिया है। इस समाचार से स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि मोदी सरकार गरीबी उन्मूलन के लिए गम्भीर है और ऐसी नीतियों को अमलीजामा पहनाने के लिए प्रयासरत है, जिससे देश से गरीबी का कलंक जड़ से मिट जाये अथवा न के बराबर रह जाये। 

सरकार अपने प्रयासों में कितनी सफल रहेगी, यह तो आने वाला भविष्य ही तय करेगा। लेकिन, इतना तो तय है कि यह मुद्दा बेहद संवेदनशील है और सरकार गरीबी का जो भी पैमाना निर्धारित करेगी, विवादों में जरूर घिरेगी। वैसे देखा जाए तो इससे बड़ी और विडम्बना क्या होगी कि स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी हम गरीबी के मानक भी तय नहीं कर पाये हैं? ऐसे में सबसे गम्भीर यह सवाल उठता है कि जब स्पष्ट तौर पर यही पता नहीं था कि आखिर गरीब हैं कौन ? तो 

गरीबों के उत्थान का ढकोसला क्यों किया जाता रहा है? 
पिछली यूपीए सरकार में जब भी गरीब के मानक तय किए गए, उन्होंने गरीबों के जख्मों पर नमक छिडक़ने का काम किया और गरीबों का मजाक बनाकर रख दिया गया। चूंकि, मोदी सरकार अब नये सिरे से गरीबी के मानक तय करने में जुटी हुई है तो एक बार फिर यह मुद्दा वाद-विवादों का विषय बनने वाला है। 

यदि मोदी सरकार सच में गरीबी के सर्वमानक तय करने में सफलता हासिल कर लेगी तो यह सरकार की अप्रत्याशित, अनूठी एवं अद्भुत उपलब्धि मानी जायेगी। यूपीए सरकार के दौरान सितम्बर, 2011 में योजना आयोग ने तेन्दुलकर समिति के सुझावों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में एक रिपोर्ट दाखिल करके बताया था कि शहर में 32 रूपये और गांव में 26 रूपये प्रतिदिन खर्च करने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा (बीपीएल) की परिधि में नहीं आता है। 

कांग्रेस सरकार की इस कूटनीति और कुटिलता पर खूब बवाल मचा था और सरकार को सर्वत्र घोर आलोचना का सामना करना पड़ा। आंकड़ों की बाजीगरी से देश की गरीबी को मिटाने का दिवास्वप्न देखने वाली कांग्रेस को जब इस मसले पर न उगलते बना और न निगलते बना तो उस रिपोर्ट को दोबारा तैयार करने की घोषणा करनी पड़ी। 

19 मार्च, 2012 को रिपोर्ट संशोधित करके नया पैमाना तय किया गया। इस नए पैमाने के अनुसार गांव में रहने वाला व्यक्ति यदि प्रतिदिन 22 रूपये 42 पैसे (672 रूपये 80 पैसे प्रतिमास) और शहरों में रहने वाला व्यक्ति 28 रूपये 65 पैसे (859 रूपये 60 पैसे प्रतिमास) खर्च करता है तो वह गरीबी की श्रेणी में नहीं आता है। 

आसमान छूती मंहगाई, बेरोजगारी, बेकारी और भ्रष्टाचार के दौर में यूपीए सरकार द्वारा तय किए गए गरीबी के इन मानकों को गरीबों के मुंह पर करारे तमाचे और गरीबों के साथ भद्दे मजाक की संज्ञा दी गई। काफी विवादों के बीच यूपीए सरकार को एक बार फिर नए सिरे से गरीबी निर्धारण करने के लिए विशेषज्ञ कमेटी गठित करने की घोषणा करने को विवश होना पड़ा। 

आम जनता में गरीबी, महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भारी असंतोष के कारण यूपीए सरकार का सफाया हो गया और अप्रत्याशित जीत के साथ भाजपा को सत्ता की बागडोर मिल गई। बेहद विडम्बना का विषय है कि अब तक की सरकारों ने गरीबी दूर करने के नाम पर सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी दिखाई है और गरीबी उन्मूलन नीतियों के निर्माण का स्वांग रचाया है। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि आजादी के समय भी आम आदमी गरीबी के चंगुल में फंसा हुआ था और आज भी फंसा हुआ है। आजादी प्राप्ति से लेकर आज तक आम आदमी सिर्फ गरीबी मिटाने के सरकारी आश्वासनों और दावों के चक्रव्यूह को झेलता आ रहा है। सरकारें बदल रही हैं, नीतियां बदल रही हैं, लेकिन, स्थिति वही ढक के तीन पात वाली है।

 गरीबों के हालात बद से बदतर होते चले जा रहे हैं। भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और बेकारी के चलते गरीबी का ग्राफ दिनोंदिन तेजी से चढ़ता चला जा रहा है और सत्ताधारी दल अपनी राजनीतिक रोटियां खूब सेंकने से बाज नहीं आ रहे हैं। वैसे तो आंकड़ों के तराजू में गरीबी को कई बार तौला गया है। आश्चर्यजनक पहलू यह रहा कि आंकड़ों के परिणाम एकदम विरोधाभासी रहे। यदि सरकारी आंकड़ों की नजर में गरीबी की स्थिति को देखा जाए तो वर्ष 1973-74 में कुल 54.4 प्रतिशत गरीबी थी, वर्ष 1977-78 में यह आंकड़ा घटकर 51.3 प्रतिशत पर आ गया। 

आगे चलकर गरीबी का प्रतिशत वर्ष 1983 में घटकर 44.5 प्रतिशत पर आ पहुंचा और वर्ष 1987-88 में 38.9 प्रतिशत हो गया। जादुई तरीके से यह प्रतिशत वर्ष 2004-05 में घटते-घटते 37.2 और वर्ष 2009-10 में 29.8 तक आ पहुंचा। वर्ष 2011-12 में घटकर यह आंकड़ा मात्र 21.9 पर आ टिका। सर्वविदित है कि हकीकत इन सरकारी आंकड़ों के एकदम विपरीत है। भारत सरकार द्वारा कुछ समय पहले नियुक्त अर्जुन सेन गुप्त आयोग ने बताया था कि भारत के 77 प्रतिशत लोग (लगभग 83 करोड़ 70 लाख लोग) 20 रूपये से भी कम रोजाना की आय पर किसी तरह गुजारा करते हैं। 

विश्व बैंक के अनुसार भारत में वर्ष 2005 में 41.6 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे। एशियाई विकास बैंक के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। केन्द्र सरकार द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समूह द्वारा सुझाए गए मापदण्डों के अनुसार देश में गरीबों की संख्या 50 प्रतिशत तक हो सकती है। गरीबों की गिनती के लिए मापदण्ड तय करने में जुटे विशेषज्ञों के समूह की बात यदि सरकार स्वीकार करे तो देश की 50 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) पहुंच जाएगी। 

विशेषज्ञ समूह ने पाया कि 2400 कैलोरी के पुराने मापदण्ड को आधार बनाया गया तो देश में बीपीएल की आबादी 80 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। लेकिन, बदली जीवन शैली में कम कैलोरी खपत (2100 कैलोरी) के आधार पर भी ग्रामीण इलाकों में रहने वाली बीपीएल जनता की संख्या 50 प्रतिशत होगी। समूह का आंकलन प्रति व्यक्ति 12.25 किलो अनाज की खपत पर आधारित है। 

यहां आंकड़ा इसलिए भी तर्कसंगत है, क्योंकि देश में 50 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम है। केवल इतना ही नहीं, कम से कम 75 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं में खून की कमी पाई जाती है। विश्व बैंक ने भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बीपीएल के लिए 1.25 डॉलर प्रतिदिन आय का मापदण्ड तय किया था। अब तक गरीबी उन्मूलन के लिए ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’, ‘भारत निर्माण योजना’, ‘प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना’, ‘कुटीर उद्योग योजना’, ‘नेहरू विकास योजना’, ‘इन्दिरा आवास योजना’, ‘अन्त्योदय योजना’ जैसी दर्जनों कल्याणकारी योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन किया गया है। 

लेकिन, इसके बावजूद देश में गरीबी घटने की बजाय, बढ़ी है। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि योजनाओं का क्रियान्वयन ईमानदारी से नहीं हुआ और सभी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं। आम व गरीब आदमी तक उन योजनाओं का पूरा लाभ नहीं पहुंच पाया। इस कटू सत्य को तो यूपीए सरकार ने भी स्वीकार किया था कि इन योजनाओं के सौ में से मात्र 14 पैसे ही जरूरतमन्दों तक पहुंच पाते हैं, बाकी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं। 

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए मोदी सरकार ने प्रथम दृष्टया जबरदस्त कामयाबी पाई है और सभी योजनाओं को पारदर्शी व आनलाइन किया है। सरकार ने भ्रष्टाचारियों को जेल पहुंचाने से भी गुरेज नहीं किया है। ऐसे में आम जनमानस में मोदी की जीरो टोलरेंस नीति ने आशाओं एवं संभावनाओं का अद्भुत संचार किया है। हाल फिलहाल गरीबी के नए मानक तय करने में मोदी सरकार कसौटी पर कितना खरा उतर पायेगी, यह देखना वाकई दिलचस्प होगा।



 

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