एनजीओ की अर्थव्यवस्था में महत्ता

Samachar Jagat | Thursday, 19 Jan 2017 04:32:35 PM
The importance of NGOs in the economy

एक  समय था जब एनजीओ को अर्थव्यवस्था का चौथा स्तम्भ कहा जाता था तथा अभी भी यह क्षेत्र कृषि, रेलवे एवं सरकारी नौकरी के बाद ‘रोजगार’ का भी सबसे बड़ा एवं व्यापक क्षेत्र माना जाता है। आज गैर-सरकारी संस्थाएं गांव एवं ढाणी तक विस्तारित हो चुकी है। जो मूलत: सोसायटीज एक्ट के अंतर्गत रजिस्टर्ड होती है। जिसके लिये न्यूनतम केवल पन्द्रह व्यक्तियों वाली सामान्य सभा और न्यूनतम ग्यारह व्यक्तियों वाली कार्यकारिणी की जरूरत होती है।

 इसीलिये देश में औसतन करीब प्रत्येक 450 व्यक्ति पर एक एनजीओ है। जिनको प्रतिवर्ष हजारों करोड़ रुपयों की सहायता या अशंदान या मानदेय केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के द्वारा सेवा करने एवं सहयोग करने के नाम पर मिलता है। 

साथ ही वे इसे कई गुणा राशि ‘दान’ के रूप में मिलती है। जब से कारपोरेट सोसियल रेस्पोन्सबिलिटि कानून पारित एवं लागू हुआ है इस क्षेत्र की तो ‘चांदी’ हो गई है। क्योंकि अब हर कम्पनी को जो कुछ मापदंड पूरा करती है को अपने शुद्ध लाभ का न्यूनतम दो प्रतिशत राशि सामाजिक कल्याण संबंधी कार्यों पर अनिवार्य रूप से खर्च करनी पड़ती है। जो प्रति वर्ष अरबों रुपयों की होती है। 

प्रतिवर्ष दस हजार करोड़ रुपयों का दान तो इनको विदेशों से मिलता है। जबकि बहुत ही कम एनजीओ अपने खातों का प्रतिवर्ष ऑडिट करवाते हैं तथा रिटर्न 00.1 प्रतिशत भी नहीं भरते हैं जबकि दान और सरकारी सहायता-सहयोग से संचालित इन संस्थाओं के पदाधिकारी विलासितापूर्ण सुविधाओं का उपयोग करते हैं।

कुछ बड़े व विख्यात कहे जाने वाले तथा विदेशी चंदा प्राप्त करने वाले एनजीओ के पदाधिकारी हवाई जहाज की भी सर्वाधिक महंगी श्रेणी में यात्रा करते हैं, फाइल स्टार होटलों में रहते हैं, लक्जरी गाडिय़ों में घूमते हैं, विदेशी ब्रांड या समकक्ष ब्रांड की महंगी शराब पीते हैं और केवल अंगे्रजी में बोलते एवं भाषण देते हैं। इनका एक पैर देश व दूसरा विदेश में रहता है।

उपरोक्त संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का व्यापक विश्लेषण करने की जरूरत है जिसमें सभी एनजीओ के खातों की जांच करने और उनसे अपने आडिटेड खाते प्रस्तुत करने को कहा गया है। तकनीकि दृष्टि से तो भारत में चल रहे सभी अस्पताल, स्कूल, कॉलेज, मंदिर, धर्मस्थल, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा कला संस्थाएं आदि सभी एनजीओ हैं। इसके अलावा भी ऐसी संस्थाएं, पर्यावरण, मेडिकल, खेलकूद, प्रशिक्षण, कला, संगीत, नृत्य महिला सशक्तिकरण, सामाजिक रूढिय़ों के उन्मूलन, साम्प्रदायिक सौहाद्र्र, जनजाति विकास, विभिन्न प्रकार की सेवा, भाषा उन्नयन आदि सैकड़ों-हजारों क्षेत्रों में लगी है। 

यह सही है कि इनमें से बड़ी संख्या में धरातल पर अच्छा काम कर भी रही हैं। कई तो मेडिकल, शिक्षा, प्रशिक्षण, महिला सशक्तिकरण, बालिका विकास, टीकाकरण आदि क्षेत्रों में सरकार के साथ सहभागिता निभा रही हैं। इन संस्थाओं के कारण आमजन विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता, साक्षरता, शिक्षा, कुशलता, सामाजिकता, सम्प्रेषण कला प्रश्र करने की क्षमता, निर्भिकता जैसे गुणों का विकास हुआहै। जिनको अरबों रुपयों के सरकारी खर्च के बाद भी पैदा नहीं किया जा सकता था। 

इस आधार पर इनकी उपयोगिता को सीधा ही नकारा नहीं जा सकता है। देश में और विशेषत: ग्रामीण भारत में जिस तेजी से एनजीओ का विस्तार हो रहा है उससे एक बार तो स्वत: सिद्ध होती है कि इन्होंने कौशल का विकास तो तेजी से किया है। इस तरह इस क्षेत्र का आर्थिक विकास एवं विशेषत: सरकारी योजनाओं और परियोजनाओं को आम जनता तक पहुँचाने में योगदान को कमतर नहीं आंका जाना चाहिये।

अब तो प्राय: हर बड़ी कम्पनी ने अपना एनजीओ गठित कर लिया है लेकिन ऐसी संस्थाएं मिशन से कम और मोटिव से ज्यादा काम कर रही हैं। सीएसआर कानून में स्पष्ट व्याख्या है कि संबंधित कम्पनी कोई एनजीओ अपने नाम या उससे मिलते नाम से गठित कर उसमें इस कानून के अंतर्गत अपने दायित्व की राशि का उपयोग नहीं कर सकता है जबकि व्यवहार में हो इसके विपरीत रहा है। उस राशि का उपयोग अपनी ही संस्था से परोक्ष रूप में अपना प्रचार करने में किया जा रहा है। यह स्थिति बिल्कुल इस हाथ ले उस हाथ दे जैसी है। राशि का अधिकांश हिस्सा प्रचार, प्रक्रियाबद्धता, प्रशिक्षकों के मानदेय तथा मुख्य कम्पनी के ही काम करवाने पर खर्च  किया जाता है। इनके बारे में आम धारणा है कि यहां भी वे ‘धंधा’ ही कर रहे हैं। तब ही तो अधिकांश के द्वारा प्रशिक्षण कार्यक्रम ही चलाये जाते हैं। जिसके लिये पंजीयन, यूनिफार्म किट, परिवहन के नाम पर वसूली के साथ ही प्रतिमाह बड़ा शुल्क भी लिया जाता है। जिससे सामाजिक कल्याण जिसकी जरूरत गरीब, असहाय, उपेक्षित एवं निर्बल को ही होती है का उद्देश्य कानून बना दिये जाने के बाद भी गोण ही रह जाता है। इतना प्राप्त कर लिये जाने के बाद भी ऐसी कम्पनी प्रशिक्षित को जॉब देने या दिलवाने की कोई गारंटी नहीं देती है।

ऐसे एनजीओ के खातों संबंधी आंकड़े बहुत ही भयावह हैं। उदाहरण के लिये पश्चिमी बंगाल में 2.34 लाख में से सतरह हजार, तमिलनाडु में 1.55 लाख में से बीस हजार 277 तथा दिल्ली में 82 हजार दो सौ में से केवल पचास ही अपना रिटर्न फाइल करते हैं। इसी कारण से पिछली जुलाई में लोकसभा में एक प्रश्र के लिखित उत्तर में बताये अनुसार वर्ष 2014 में 14222 एनजीओ पर रोक लगाई गयी थी।

 यह संख्या 2012 में मात्र 4138 ही थी। अब सर्वोच्च न्यायालय ने 31 मार्च, 2017 तक सबके खातों की जाँच के जो आदेश दिये हैं उससे क्या समस्या का वास्तविक निदान हो पायेगा? यह बहुत बड़ा प्रश्र है। जहां तक इसकी सैद्धांतिकता का प्रश्र है कोई व्यक्ति बल्कि स्वयं एनजीओ भी इनकार नहीं कर सकते हैं। वास्तविक मुद्दा व्यवहारिकता का है। 

जो कि ऊपरी तौर पर संभव लगता नहीं है। मेरे व्यक्ति का अनुभव के अनुसार करीब तीन चौथाई ऐसी संस्थाएं पंजीयन के बाद केवल रिकार्ड में ही चलती हैं। लेटर हेड एवं विजिटिंग कार्ड के अलावा पदाधिकारियों के पास कुछ भी नहीं होता है। 

वैसे भी जो संस्था प्रति वर्ष अपना रिटर्न व खातों की फोटोकॉपी रजिस्ट्रार के यहां प्रस्तुत नहीं करते हैं तो कुछ प्रक्रियाओं के बाद उसका पंजीयन तो निरस्त वैसे ही हो जाना चाहिये। नियमों के अनुसार जो संस्था सरकारी सहायता तथा विदेशी या स्वदेशी चंदा लेती है उसे तो सब कुछ दस्तावेज पूर्ण करने ही होते हैं।

 अगर ऐसा बिना किये ही रहा है तो संबंधित अधिकारियों  से भी पूछा ही जाना चाहिये। इस निर्णय से जितने कागजी शेर घट जाये उतना ही अच्छा है। क्योंकि एनजीओ फैशन नहीं पशन के लिये बनाना चाहिये। वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय एक संस्था की सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर आया है जिसका कुछ तो आधार है ही।

इस बात से भी कोई इनकार नही कर सकता है कि बड़े प्रतिशत में एनजीओ धंधे के रूप में ही गठित किया जाता है। प्राप्त राशि को वेतन, भत्तों, सुविधाओं, मानदेय, यात्रा, प्रचार, इवेंट, रिपोर्ट मेकिंग, प्रचार सामग्री, जागरूकता सप्ताह, रैलियों, वर्कशाप, सेमिनार, लेक्चर्स, प्रशिक्षण आदि के नाम पर स्वयं के काम में लिया जाता है।

 बड़े एनजीओ तो बड़ी राशि सर्वे पर ही खर्च करते हैं। जिसका हिसाब किसी भी तरह दिखाया जा सकता है। सबसे बड़ा खेल भवन-कार्यालय बनाने और उसके उपयोग व्यक्तिगत कार्यो के लिए करने का है।

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला और उसका वास्तविक रूप से क्रियान्वयन अपन जगह है। वैसे भी सरकारों इनके अर्थव्यवस्था एवं समाज परिवर्तन में योगदान को देखते हुये एनजीओ के प्रमुख पदाधिकारियों की पद पर रहने की अधिकतम सीमा व सीमा, उनकी सम्पत्ति की प्रति वर्ष घोषणा की कानूनी अनिवार्यता, इनकी हर गतिविधि को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाने, एक संस्था को तीन से अधिक बार सरकारी सहायता नहीं देने, दस वर्ष के बाद पुन: पंजीयन की अनिवार्यता का नियम बनाने, पदाधिकारियों को प्रत्येक गतिविधि के लिए व्यक्तिश: जवाबदेह बनाने, चंदा एवं सहायता लेने वाली संस्था के लिये सब कुछ ऑन लाइन और डिजिटल ही करने, यथानुसार सोसियल ऑडिट की व्यवस्थाकरने जैसे नियम तो बना जही दिये जाने चाहिये। 

जरूरत यह भी है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की पालना के बिना सरकारी सहायता एवं चंदा लेने के उनके अधिकार को भी सीज कर दिया जाये। वैसे भी सैद्धांतिकता के अनुसार तो स्वेच्छिक संस्था को सरकारी धन को अपने धन की तरह उपयोग की आदत तो डालनी ही चाहिये।



 

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