नई दिल्ली। उस वक्त न आरामदायक ब्रांडेड जूते हुआ करते थे, न सुविधाएं, न ईनामी राशि होती थी और न ही ऐसी वाह वाही, लेकिन खिलाड़ी देश के लिए सोना जीत लाते थे, आज सब कुछ है, पर पूरे 38 साल बीते भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक में सुनहरी जीत के लिए तरस रही है। 1980 में वह 29 जुलाई का ही दिन था, जब भारतीय हॉकी टीम ने मास्को ओलंपिक खेलों में देश के लिए आखरी बार स्वर्ण जीता था।
किसी और खेल में स्वर्ण पदक न जीत पाने का दुख उतना नहीं सालता, जितना हॉकी में, क्योंकि आजादी से पहले से भारत हॉकी का सिरमौर हुआ करता था और 1928 के एम्स्टरडम ओलंपिक खेलों से हुई यह शुरूआत 1956 के मेलबर्न ओलंपिक खेलों तक लगातार जारी रही। छह ओलंपिक खेलों में लगातार छह स्वर्ण पदक। उसके बाद भारत का विजय रथ जैसे रूक सा गया।
हालांकि आठ बरस बाद 1964 के तोक्यो ओलंपिक खेलों में भारत ने स्वर्ण पदक जीता, लेकिन फिर अगला स्वर्ण आने में 16 बरस लग गए और अब तो 38 बरस बीते, भारतीय हॉकी जैसे स्वर्ण पदक का रास्ता ही भूल गई। आखिर क्या हुआ इस दौरान कि सफलता के स्वर्णिम शिखर को छूती भारतीय टीम के लिए एक मौके पर ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करना भी मुश्किल हो गया।

विश्व कप हॉकी, विश्व कप क्रिकेट, राष्ट्रमंडल खेल और राष्ट्रीय खेलों जैसी प्रतिष्ठित स्पर्धाओं में रेडियो पर आंखो देखा हाल सुनाने का लंबा अनुभव रखने वाले अन्तरराष्ट्रीय कमेंटेटर कुलविंदर सिंह कंग भारतीय हॉकी के पतन के कारणों का विश्लेषण करते हुए बताते हैं कि 1928 के एम्स्टरडम ओलंपिक खेलों के समय भारत हॉकी में एक विश्व शक्ति था और ध्यान चंद सरीखे खिलाडिय़ों के दम पर भारत ने विश्व हॉकी पर राज किया। बंटवारे के बाद भारतीय हॉकी की आधी प्रतिभाएं पाकिस्तान चली गईं और 1960 के रोम ओलंपिक में पाकिस्तान ने भारत के विजय रथ को रोककर स्वर्ण पदक पर कब्जा कर लिया।
कंग बताते हैं कि 1960 में पाकिस्तान की जीत में एक बात संतोषजनक थी कि परंपरागत और कलात्मक हॉकी का दबदबा कायम रहा। 1964 के तोक्यो ओलंपिक खेलों में भारत ने स्वर्ण पदक तो जीता, लेकिन खतरे का बिगुल बज चुका था क्योंकि जर्मनी, स्पेन, आस्ट्रेलिया और नीदरलैंड जैसे देशों की चुनौती मजबूत होने लगी।
100 से भी अधिक टेस्ट, एकदिवसीय और टी20 मैचों में रेडियो पर कमेंट्री कर चुके कंग बताते हैं कि 1976 में मांट्रियल ओलंपिक खेलों से हाकी घास के मैदान की बजाय एस्ट्रो टर्फ पर खेली जाने लगी, जिसने हॉकी का परिदृश्य ही बदलकर रख दिया। कलाई घुमाकर खूबसूरत तरीके से ड्रिब्लिंग करके खेली जाने वाली कलात्मक हॉकी को दम खम वाले लंबे पास देकर खेलने वाले यूरोपीय देशों ने हाशिए पर धकेल दिया और अब हाकी 'हिट एंड रन' का खेल बन गई।

कंग बताते हैं कि इस सबका नतीजा यह हुआ कि 1975 में हाकी का विश्व कप और 1980 में ओलंपिक स्वर्ण जीतने के बाद पिछले लगभग चार दशक से भारत इन दोनों प्रतियोगिताओं के अंतिम चार में नहीं पहुंच पाया है। सबसे खराब स्थिति 2008 में आई जब भारत बीजिंग ओलंपिक खेलों के लिए क्वालीफाई भी नहीं कर पाया। एक तरफ हॉकी का पतन हो रहा था तो दूसरी तरफ 1983 के विश्व कप की जीत ने क्रिकेट को देश का धर्म बना दिया।
क्रिकेट की प्रसिद्धि से किसी को शिकायत नहीं है, लेकिन हाकी के यूं गुमनाम होते जाने का मलाल जरूर है। पिछले कुछ समय से भारतीय खिलाड़ी विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में हॉकी का स्वर्णिम गौरव भी वापस लौटेगा।- एजेंसी