City News : मेरी जिंदगी का गलियारा तंग है, यह अंधेरा खत्म होने का नाम नहीं लेता है

Samachar Jagat | Tuesday, 28 Feb 2023 05:00:30 PM
City News : The corridor of my life is narrow, this darkness does not take the name of ending

मैं इंसान हूं,मगर मेरी किस्मत जानवरों से भी बदतर है। मुझे रोटी की तलाश है। मगर सिवाय दुत्कार के मुझे मिला ही क्या है। नफरत होने लगी है अपने आप से। अंधेरे के आगोश में हूं। चारों ओरअंधेरा ही अंधेरा है,जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता है। घिसट घिसट कर चलता हूं। क्युकी मेरे सहारे अब मेरा साथ नहीं देते। अपनी ही परछाई को पकड़ने की कौशीश करता हूं। लेकिन वह भी मेरी पकड़ के बाहर  हो चुकी है। दरअसल में  मैं दिव्यांग हूं।

उस मां की सनतान हूं।  जिसकी चारों संताने विकलांग है। जी हां हम चार भाई बहिन है,जो घर का दरवाजा अपनी मर्जी से नहीं खोल पाते। क्योंकि अपने ही पांवों पर खड़ा होना, हमारे लिए सपने जैसा है। हम चारों के पास सिर्फ दीवार है। घुटन है। चूल्हे का धूवा अब हर दिन दिखाई नहीं देता। महसूस नहीं होता। ये है हमारे परिवार की कहानी। फिर कहानी ही क्यों ये हकीकत है। जिसे जी रहा है हमारा परिवार,एक साथ और सरकारी योजनाएं कागजों में कैद होकर बगलें झांक रही है। मेरा टूटा फूटा झोपड़ा गिर गया था पिछले साल। गुंडों की करतूत थी। आज भी धमकाता है, जान से मारने की धमकियां देता फिरता है।

कहता है,तुम्हारा झोपा अवैध है।  अमीरों का पास करवा चुका है। गरीबों से नफरत करता है यहां का प्रशासन। सरकारी बुल्डोजर आखिर है किसके लिए। इसके आगे हम गरीबों की सांसे थमने लगती है। हमारे घर की रोनक है बस सुबह के वक्त। पापा की कमजोर टांगे कांपती है,मगर मजबूरी है। मजदूरी के पीछे घर का चूल्हा जल पता है। मां के पास है सिर्फ बैशाखी है। इसी का सहारा लिए घर का पानी भरती है। घर घर जाकर आटा मांगती है। पहले बच्चों का पेट भरती है। फिर पति का पेट भरती है। मां की भूख हर दिन कचोटती है। कभी आधा पेट तो कभी वह भी नसीब नहीं होता है।

हमारे नसीब में चिंता के सिवाय और कुछ नहीं है। रात चिंताओं का पिटारा बनी है। हर दिन जख्मों को कुरोदता है और उम्मीदें हर दिन महल्लम लगती है। एक बार फिर आपको याद दिलाना दू हमारा परिवार विकलांग है। लाचार है। छोटे से टूटे से झोंपे में छै जनों का परिवार है। यहीं सभी का बिछावन है।खाना भी इसी में पकता है। नहाने के काम आता है। इसी में सर्दियां गुजरी थी। बारिश के मौसम में तो रात रात भर छत खोजते रहते है। सरकारी योजनाओं की एक लंबी फेहसियत है। जिन्हें लेने के लिए पूरा परिवार भटकता रहता है। लेकिन सरकारी योजनाएं है तो सही मगर हमारे घरों के द्वार तक नहीं पहुंच पाती है।

सरकार के हर महकमें का दरवाजा खट खटारा हो चुका है। मगर अब, थक चुका है और वक्त राजी हो नहीं,हमारी पुकार सुनने को। जिम्मेदारों को क्या खबर। बस सरकारी आंकड़े फाइलो में बंद है और हम विकलांगों की जिंदगी अंधेरे में है। कोई एक कारण नहीं बल्कि कई कारण है जो जिम्मेदार है इस हकीकत के।मेरा एक भाई है जो अपने हाथों से रोटी नहीं तोड़ता सकता है
बीमारियों के मुफ्त इलाज की योजनाओं को लेकर हम बाद नसीबो से कोई नहीं पूछे। हम गरीब ही नहीं बदनसीबों के मारे है।



 


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