जयपुर। दानापुर में एक खोया हुवा मोहल्ला ढीबरा जो अक्सर संकरी सावली गलियों के लिए जाना जाता है,वहां अब हर हफ्ते के आखिर में कुछ महिलाओं के बैंड ने धूम मचाई हुई है। बताया जाता है कि कस्बे की दस के लगभग अंगूठा छाप महिलाए जो की अनुचित जाति की है, दूर दराज तक लोगों का दिल जीत रही है। हसंते खिलखिलाते चेहरे वाली ये औरते ठेठ गिरस्थन है।
देशी साड़ी में लिपटी,सिर पर चौड़ी पैढ करके सिंदूर से भरे हुवे। काटे घिसे हाथ अपना इतिहास खुद बना रहे है। यहीं हाथ हरकत में आजाते है। गले में छोटे बड़े ड्रम लटकाए है। हरेक के की तो हमारा मर्द हमें टोकता था की यह क्या टुंटुना बजा रहे हो। ये सब औरतों का काम नही है। घर बैठो और बच्चा सम्हालों। हमारी ठन जाती है। पास पड़ोसी हमारा मजाक उड़ाने लगते है। उस वक्त हम रहते भी कैसे। पंचम याद करती है।
एक साड़ी लगातार पहनी हुई,बाल बने है या बिखरे है। इसकी परवा नहीं होती। बन ठन कर कभी बाहर नहीं निकलते। फिर लोग तो इस तरह ही देखेंगे। अब जब से अपना बैंड बनाया है,हम रोज बाल कोरते है। अच्छी साड़ी पहनती है। थोड़ा बहुत श्रंगार भी करने लगी है। पहले घर से बाहर निकलना हो तो दस रोज पहले बताते थे। बार बार याद दिलाना होता था। ताकि ऐन वक्त पर मना नहीं हो जाय। अब तो देश के बड़े शहरों से भी बुलावा आने लगा है। प्लेन में भी सफर करने लगी है। पहली बार तो दिल में धुगधुगी होती थी। जहाज़ उड़ता था तो भगवान का नाम जपने लग जाती थी। मगर जहाज जब हवा में उड़ता तो सब कुछ भूल गई।
हमने सोचा भी नही कि कभी गांव से बाहर जायेंगे। अब जहाज में ठसक कर बैठती है। शुरुवा में छतवा पर बैठ कर सीखा करते थे। ड्रम बजाते तो डंडा आड़ा तिरछा होता था। नीचे गांव वालों का हाजूम जोर जोर से हंसता था। लाज लगती थी। जैसे ही लाज छूटी तो काम अपने आप आगया। पहले छोटे से काम के लिए भी मर्द से मांगना पड़ता था। अब खुद का सामान खुद खरीदते है। बच्चों के नए कपड़े भी दिलाते है। त्योहार पर मन नहीं मारते। अब तो हमारा मर्द भी हमारी मदद करने लगा है। अब किस प्रोग्राम में जाना है ये बात होने लगी है। सरकारी समारोह में भी बुलावा आता है। हमारी फोटो खींची जाती है। हमारा सम्मान होने लगा है।