जयपुर। मुसीबत आती है,मगर गुपचुप। इसकी आहट तक महसूस नहीं होती। मगर उसका कोप क्षणिक साबित हुआ। खुद के तजुर्बे से कोरोना क ो मात दे डाली। मिसाल बना डाली, उन दुखियों के लिए। उठो, संधर्ष तो करो, फिर देखों, किस तरह वह दुखियारी गायब हो जाएगी। यह सत्य कथा है एक पैतीस साल के एक युवक क ी। कोरोना के लॉक डाउन के चलते, उसकी नौेकरी छिन गई थी। खुद तो भुख बर्दास्त कर सकता था, मगर बीमार मां- बाप और छोटे- छोटे बच्चोें का क्या होगा। क्या करता। कुछ तो करना चाहता था। पास में पूंजी थी नहीं। फिर भी हिम्मत बटौर कर प्लानिंग की। अपने आप पर विश्वास था, अपन्नी मित्र मंडली से भी सलाह ली। जानता था वह। जरा सी चूक से सब कुछ लुट सकता है। व्यथित हो गया था, अपने जिगर में फल फूल रही सहाल से सफलता की माला पिरोई। एक बात दिमाग में खुल कर सामने रखी, मुसीबत में अपने भी किनारा कर लेते है। मदद तो दूर, दो पैसा मांग ना ले। यही सौच कर नजरें घुमा ली थी। रास्ता टेठा- मेठा था। टिमटिमाते दीपक की तरह, रोशनी दूर से ताक रही थी। सफल हो सकूंगा या नहीं। इसी विचार ने शुरू- शुरू म्ों जरूर परेशान किया था, उसकी हिम्मत के आगे वह चारोंं खाने चित्त हो गई।
शाकिर भाई का दिल कहता था, उसकी राह मेंं कांटे अवश्य ही दर्द पैदा करेंगे, मगर मुसीबतों से जीतने का कोई ओर रास्ता भी तो नहीं था। खुद का रोजगार क ोरी कल्पना से पैदा नहीं होता उसकी आमद का स्त्रोत प्राईवेट फर्म में नौकरी ही था । कपड़ों की दुकान पर सेल्समैन का काम करता था। जो वेतन मिलता था, सकून की रोटी मिल रही थी। विपत्तियोंं का दौर उस वक्त शुरू हुआ जब जयपुर में लॉकडाउन की घोषणा हो गई थी। दूसरे व्यवसायियों की तरह उसके सेठ जी भी घबरा गए थ्ो । अनिश्चित काल के लिए अपनी दुकान बंद कर डाली। कहने को नुक्सान सेठ जी को भी हुआ था, मगर उनकी फर्म में काम करने वाले आठ कर्मचारियोंं के सामने तो भूखों मरने की नौबत आ गई थी।
अकरम भाई का परिवार भी बहुत बड़ा था। घर में आठ बच्चे थ्ो, साथ में बूढी अम्मी और पिता। दवा- ईलाज के लिए दवाएं खरीदनी पड़ती थी। डायबटीज थी ही ऐसी। एक वक्त की दवा भी नहीं ली तो समझ,े सब गुड़ गोबर। कई दिन इसी तरह गुजर गए। जमा किया पैसा भी जब खत्म हो गया तो, अल्लाह का नाम लिया और पूरे परिवार के साथ घर से पैदल ही निकल गए। उनका लक्ष्य नजदीक थोड़े ही था। पर दिमाग में एक ही जोश था, जब मरना ही है तो अपने गांव जाकर क्योंे नहीं मरे। जयपुर में कोई परिचित तक नहींे था। प्रशासन की राहत योजनाएं चल रही थी, मगर इसका प्रोसीजर मुश्किल था। फिर क्या गारंटी, कोई गरीब तक यह योजना पहुंच पाएगी।
रास्ते में खर्च के लिए कुछ पैसों की मदद की सेठ जी से गुजारिस की थी। मगर, लटका हुआ चेहरा और आंखों में नकली आंसु। कहने लगे, मेरी हालत तुमसे भी ज्यादा खराब है। आज नहीं तो कल, मुझे भी कुछ ना कुछ व्यवस्था तो करनी ही होगी। सेठ का जवाब सुनकर भाईजान हैरान रह गया। आंखों के आगे काली पटटी बंध जाने की अनुभूति हो रही थी। मगर हिम्मत नहीं हारी। सबके मालिक को याद किया... अब्दुल्लाह, बिन कुयब राजी अल्लाह के रसूल सल्लाह अलेहे पसल्लम से अर्ज की हुजूर म्ौं क्या पढूं , अपनी परेशानी दूर करने के लिए। अल्लाहु, अल्लाहु, रबीला सुश्रीका वही शय्या। बस यही सोचता रहा। महसूस हुआ मानों अल्ला मीयां मेरे साथ है। हिम्मत कर, प्रयासों में कमी ना छोड़। आज का वक्त बेशक तेरे पक्ष मेंं ना हो मगर हालात सदा एक से नहीं रहते। आज अंध्ोरा है तो कल के उजाले के लिए इंतजार कर।
अकरम की यात्रा लंबी थी। साधन के तौर पर उसके पास एक पुरानी साईकिल ही थी। छोटे बच्चों को उसी पर, पिछली सीट पर बिठा लिया था। खाली जेब लिए , तकदीर का तलाशने निकल पड़े। ज्यादा दूर नहीं गए होंगे। चंदवाजी के बस अXे के निकट ही कुछ युवक दिखाई दिए। हम जैसे बदकिस्मतोंे के लिए ठंडे पानी की प्याऊ लगाई हुई थी। हिन्दु- मुस्लिम का लफड़ा नहीं था। सभी ·ेह भाव सभी गले मिले। घंटा भर आराम किया। अब्बा जान के पांव लड़खाने लगे थ्ो। आगे दो कदम चलना भी बस का नहीं था । युवकोंे की मेहरबानी थी। बिना कोई पैसे लिए भोजन करवाया। आराम किया तो बदन भी दुरूस्थ महसूस हो गया था। चल दिए फिर से आगे के सफर में।
चंदवाजी के बाद कोटपूतली में समाज के कुछ लोग मिल गए। अनुभवी शिक्षित थ्ो। उनकी सहाल थी कि कोई भी काम शुरू करो तो उसकी पूरी प्लानिंग बना कर करो। यह नहीं कि अंध्ो की तरह सपनों के महल की कल्पना करने लगो। कस्बे के एक हिंदू परिवार को तरस आया जेब से दो हजार रूपए का नोट दिया। बोले कि यही अमानत है आपकी। देखते हैं कि आप इसका उपयोग कैसे करोगे। बात सटीक थी। बस अXे से करीब सौ कदम दूरी पर सब्जी मंडी थी। गिने- चुने लोग ढेला लगाए खड़े थ्ो। अकरम भाई ने भी हिम्मत जुटाई। खुदा का रहम रहा कि सायं तक तमाम तरकारी बिक गई। क माई में कुछ- कुछ पैसा जोड़ते रहे। एक माह का कष्ट भोगा। अल्लाह मीयां की मेहरबानी हो गई। कारोबार जमने लगा। हैसियत बनी तो वहीं एक कोठरी किराए पर लेली। हालात सुधरने तक वहीं कुछ दिनोंे के लिए ठहर गए।
भाई जान का तजुर्बा सुनने लायक था। उनका अनुभव था कि मुसीबत चाहे जितनी खतरनाक हो, स्थाई नही ं होती। आप के जिगर में परवर दिगार मौजूद है। मन की आवाज को सुनो और अमल करते रहो। इंसा अल्लाह तुम्हारी मुसीबतें अपने आप दूर हो जाएगी। अकरम भाई की बातें, जिसने सुनी, गदगद हो गया। परेशानी जब आई परेशान करने। हिम्मत रखो। बस यही काफी है। मुसीबतों की तोप ठंडी पड़ जाएगी। फि र एक बात और... जरूरमंद की मदद करो, मगर एक बात का ध्यान रख्ों आपकी मदद दुखी सख्स को जीत की राह दिखाएगी।