जयपुर। मौत ही ऐसा है। जहां भी इसके कदम पड़ते हैं, वातावरण गमगीन जाता है। प्राय: कर इसका प्रभाव अधिक समय तक नहीं रहता। बारहवे की रस्म के बाद, सभी की लाइफ रूटीन में आ जाती है। मगर मन की यह पीड़ा लीक से अलग हट कर है। घाटगेट की कच्ची बस्ती की एक तीस वर्ष की महिला का दर्द है, महिनों गुजर जाने के बाद भी उसकी आंखों के आंसु नहीं सूख पाए हैं। उसका व्यवहार बदल चुका है। भौर होते ही वह घाटगेट श्मशान पहुंच जाती है। हाथ की उंगलियों में फंसी फूलों की माला, भ्रम की शिकार है कि व्यक्ति की मौत के बाद उसकी आत्मा कई दिनाक श्मशान में भटकती रहती है। मीरा की सोच से रिश्तेदार और पड़ौसी परेशान है। दुख इस बात का है, कहीं किसी की आत्मा लेकर घर आ गई तो उसका जीना नरक हो जाना है। महिला के चाचा ससुर बताते हैं कि कुछ दिनों पहले वह रात के समय चला करती थी। बिना कोई मंजिल के । उन्होने क शिश की। उसका पीछा किया। नंगे पांव और आंखा में नींद । जो लाल होकर डरावनी सी हो जाती है। श्मशान में करीब एक घंटा भटकती रहती है, बाद में बिना किसी झिझक के अपने घर में आकर अपने बच्च के पास सौ जाया करती है। सुबह का सूरज आकाश में उठने पर, जब भी उसे होश आता है, पुरानी बात का उसे अहसास नहीं होता। कोई प्रयास करता है। इस पर वह चौंक कर व्यक्ति को अजीब निगाहों के घूरने लगती है। मीरा के व्यवहार को लेकर बस्ती वासियों की मान्यता बन गई है, उसमें उसके पति की आत्मा प्रवेश कर गई है। रूह से पीछा छुड़ाने को उसे कई श्याणों के पास ले जाया गया था, मगर इसका कोई असर नहीं देखा गया। हार कर उसे जयपुर के मनोचिकित्सा अस्पताल ले जाया गया था। वैज्ञानिकों की भाषा में वह किसी मानसिक रोग का शिकार हो गई है, जिसका उपचार समय पर ना होने पर दुखभरी पीड़ा स्थाई रूप ले चुकी है।
मुसीबतों की पोटली बनी मीरा देवी गरीब परिवार से संबंध रखती है। इसका पति खुशी राम शहर में कचरा बीनने का काम किया करता था। दिन- भर की मेहनत के बाद थोड़ी बहुत जो आमद होती थी, उसी से उसके घर में चूल्हा जला करता था। कई दफा यह भी नसीब में नहीं होता था। ऐसे में पूरा का पूरा परिवार जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल की बांगड़ इकाई में,नित्य आने वाली, भोजन बांटने वाली गाड़ी का इंतजार करना पड़ता था । दानदाताओें की भोजन की प्लेट में ज्यादा कुछ नहीं। गिने चुने आईटम मिलते थ् गर्मा-गम चार पूड़ियां, एक सूखी सब्जी, दाल और थोड़े से चावल। एक बार में पेट नहीं भरने पर फिर से लाइन में लगना होता था। दिन ढलने के साथ ही खुशी राम की डूटी यही रहा करती थी। जितना भोजन मिल पाए, उसी को समेट कर अपने परिवार के पास ले जाया करता था। ले देकर, दुख- सुख का सिलसिला चलता रहा। तभी एक दिन खुशी राम की तबियत खराब हो गई। शास्त्री नगर की डिसपेंसरी में दिखाया तो उसे कोरोना बताकर, इनडोर वार्ड में सिफ्ट कर दिया। ठीक उस तरह। जैसे कि हाउस अरेस्ट के मसय हुआ करता है। दिन- रात एक ही सीन आंख् के सामने घूमा करता था। खों..खों और सुड़सुड़ करने वाले पेसेंट। कफ के खजाने की तरह। थूकते करते समूची रात भी ऐसे दृश्य मन में बैचेनी पैदा किया करते थ्। कभी किसी की हालत बिगड़ जाया करती थी। सांस लेने में परेशानी होने लगती थी। देखते ही देते वेंटीलेटर की गिरफ्त में आ जाना पडता था। मौत के वाकियों से मन बैचेन हो जाया करता था। दिल करता था कि भाग चलो कोरोना के वार्ड से। मरने - जीने से कभी कोई बच सकता है। मगर इस केस का व्रतांत इस कदर डरावना हुआ करता था कि नींच और चिंता से आराम के लिए इंजेक्शन लगवाना पड़ जाता था। फिर मौत के बाद भी शांति,नसीब के बाहर हो जाया करती थी। फिर उफ ...। ऐसे केस में प्राय: कर होता यह था कि परिजनों को कोरी सूचना दी जाती थी। लाश का दर्शन संभव नहीं था। गहरे नीले रंग की प्लास्टिक में लाश को लपेट पर मोटी रस्सी से इसका सिरा बांध दिया जाता था। शव की अंतिम क्रिया के लिए उसका बाड़ा अलग ही था। श्मशान के सेवक भी अलग हुआ करते,हिंदू या मुस्लिम, जैसा जो भी कोई, उनके धार्मिक संस्कार के मुताबिक अंतिमक्रिया किए जाने का प्रयास किया जाता था। चिता को आ को समर्पित करने से पहले मृतक के परिजनों में किसी एक को चिता से कोई बीस कदम दूर रह कर आग को चिता को सुपुर्द करने का प्रयास किया जाता था।
श्मशान में डेरा जमाने के बाद मीरा के लिए इस तरह के दृश्य आम हो गए थ. शुरू के दिनों में भय लगता था। मगर अब बहुत सी बार तो जलती चिता के समीप बैठ कर भोजन करना पड़ जाता था। श्मशान में भोजन पानी की कोई कमी नहीं थी। मुर्दे के परिजन तीन चार दिनो तक घर में पका भोजन मिष्ठान ले कर आया करते थ आगे पीछे इसी का सेवन हुआ करता था। मीरा का नान्या नटखट था। हर दिन कोई ना कोई फरमाइस। दूध पीने का उसे बेहद शोक था। दुखियारे परिजन चिता पर दूध भी अर्पित किया करते थ् इसी में किलो- दो किलो दूध मीरा देवी के परिवार को मिल जाया करता था। मगर, जहां तक सवाल था, कोरोना की लाशों का, उनसे दूरियां ही बना कर रखनी होती थी। ऐसे मृत शरीर की शांत हुई चिता बिना कोई रस्म या अस्थि संग्रह की किया से दूर ही रहा करती थी। कोरोना के पेसेंट की लाश से भय मीरा देवी को भी लगा करता था। अपने छोरे को गोद में लेकर, श्मशान के सूने इलाके में आराम करने चली जाया करती थी। मीरा की आर्थिक हालत बहुत अधिक खराब होने पर पहनने को पोशाक दुर्लभ हो गई थी। लेडीज परिधानों के आइटम भी अनेक हुआ करते हैं। कोई ना कोई दुखियारा, आत्मा के लिए पोषाक भी ले आया करता था। बस इसी से काम चलाया जाता था। मां- बेटों का यह क्रम कई महिनों से चल रहा था। अनेक लोगों ने इन्हें समझाने का प्रयास किया। बताया गया कि मरने के बाद कोई भी वापस नहीं लोटा करता। मगर अफसोस। लोगों की ऐसी बातों से उसका मन रो पड़ता था। फिर ना समझ बालक, हैरानी भरी निगाह से अपनी मां को ताकता रहता था। कई बार पूछा भी कि उसके पिता कब लौटेंगे। मासूमियत सी बातों को सुन कर मीरा,अपने लाल के सिर पर हाथ फेरने लगती थी। शोक का प्रभाव कम करने के लिए उसे अच्छी- अच्छी कहानियां भी सुनाया करती थी। यही सिलसिला महिनों से चलता आ रहा है। आम जीवन में कब लौट पाएगी। इस बारे में मीरा देवी कभी भी कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी।