Jaipur : आखिर लाश ने सुनाई आपबीती

Samachar Jagat | Saturday, 31 Dec 2022 05:17:58 PM
Jaipur : At last the dead body narrated the incident

जयपुर। धर्म के नाम पर होने वाले कत्ल ओ गरात को आधार पर लिखी यह स्टोरी एक लाश के माध्यम से मानव स्वभाव को बयां करती है। यह सीन रेलवे स्टेशन का है। रात का समय है। मालगाड़ी से उतरी गई बंद बोरी की तरह फूली हुई,लेबल लगी तीन चार लाशे मुर्दा घर में रखी है। कहने को वहां फ्रिज में एक साथ आठ लाशों को रखा जाता है। आमतौर पर इससे ज्यादा आते नहीं है। मगर आज क्या पता कैसी आफत आगायी। फ्रिज फुल था। इसके बाद भी दो सडी लाशों को मुर्दा घर के कोने में रखना पड़ा। बापरे बाप,ऐसी बदबू। मुझे उल्टी आने लगी। जी खराब हो गया। मन ही मन पुलिस के उस थानेदार को गालियां दी।बार बार कहने के बाद भी इनका पंच नामा नहीं भरा । गधा कहीं का। अब इसका पोस्टमार्टम उसका बाप भरेगा।

रहस्य का सड़ा बोरा जब मेरे मुर्दा घर में लाया गया तब सूरज पश्चिम की ओर फिसलने लगा था। रोशनी पके आम की तरह ओरंजी हो गया था। धुंध और मिट्टी के गुबार ने वातावण को और भी धुंधला कर दिया था। अंधेरा सरकते मेरे काफी करीब आया था। लाशों के कफन स्याह दिखाई देने लगे थे। मुर्दा घर,इससे सटा पुलिस थाना,सामने कई मंजिले भवन का निर्माण चल रहा था। दिनभर की उठा पकट के बाद मजदूरों का समूह हाथ पांव धो कर घर लोटने की तैयारियां कर रहा था। इसी भवन से सट कर कोई दो दर्जन एंबुलेंस और मुर्दे ढोने वाले स्ट्रेचर यातिमो को तरह खड़े थे। करीब से किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। मन में सवाल कोंधा। सालों को रात में भी चैन नहीं। फिर से लाश। अब कौन मर गया। आवाज करीब आने लगी थी। मेरा डोगी जॉनी गुराने लगा। दरख्तो से बिछड़े पत्ते काली डामर पर गिरने लगे थे।

मुर्दा घर के दरवाजे की दरार से जाने कहां से रोशनी की किरण ओटी की टेबल पर गिर रही थी। मेरे इर्द गिर्द सवाल उठे। मेरी मौत कई से होगई। अभी कुछ पल पहले तक मैं जिंदा था। मगर हां मैं नहीं मरा। क्योंकि मेरी लाश को ठंड का अहसास था। ओर भी कुछ, थोड़ा सा याद था। मैं सोच सकता था। भला मुर्दा सोच सकता है। तभी तो मेरा दावा है कि मैं नही मर सकता। मुझे कोई रोग नहीं था,एक्सीडेंट भी नहीं हवा ना गोली लगी, नही चाकू लगा  ऑफ यह क्या।मेरी पास वाली लाश, लगता है करवट बदलना चाहती है। मर  गई मगर चैन अब भी नहीं है। एक सिलसिला लगता है। शायद इंसान की मसियत का राज इसी में मुजबर है। पहले हल्के हल्के खासी की आवाज।

फिर मुतवार खासी। बुखार सा महसूस होने लगा। जिस्म दुबला नाहीफ चहरा पीला जर्द और उदास चेहरा। कौन है। कौन सा धर्म, हिंदू या मुस्लिम। कोई भी हो। मुर्दा घर अपने आप में अलग धर्म है। ना कोई अमीर और गरीब। करोड़ पति हो या फकीर। मेरे घर में सब एक। तो फिर,कोरोना या फिर कोई दूसरा कोई खतरनाक रोग। जो भी हो मेरा दोस्त। यहां और भी मुर्दे है। वह बूढ़ा,गंजी।खोपड़ी वाला। इसके क्या दुखड़े है।

इसके मन की पीड़ा। लो देखो तो इसका चेहरा। मुंह से बहता खून। ठहरो जरा। यह भी किसी भी लम्हे मर सकता है। लगता है इसे भी,भीतर ही भीतर कोई खाए जा रहा लगता है। कोई घुन लग गया है। फिर चाहे जो रोग हो ,मगर अब हमारी बिरादरी में आगया। खून का काला धब्बा। नीचे फर्श पर गिरा। एक शेर की तखलीक। अंधेरे के खाला में भटकती हुई, आसेब जैदा नजीस साए सी जिंदगी। मैं भी इंसा हूं। पर क्या मैं मर गया। लोग कहते है। कहते होंगे। मरी है तो मानवता। इंसानियत। तभी तो दंगे। भाई ही भाई का दुश्मन। जिंदा तो वह भी नहीं। जीते जी मर चुके है। भूखे कहीं के। एक दूसरे के खून के दुश्मन। नैता नहीं देंगे बाज है। कुर्सी के भूखे। बईमान नहीं तो और क्या है।



 

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