Jaipur : पिंजरे के पंछी रे..... तेरा दर्द ना जाने कोई

Samachar Jagat | Friday, 09 Sep 2022 09:31:04 AM
Jaipur : Cage ke birds re..... no one knows your pain

जयपुर। कि डनी की बीमारियों से ग्रस्त पेसेंटो का दर्द बड़ा पीड़ादायक होता है। गरीब परिवार और किडनी डोनर का अभाव। सच पूछो तो संकट की इस घड़ी में अपने पराए की पहचान होती है। सुख की घड़ी में तालियां पीट- पीट कर खुशियां मनाने वाले लोग पराए हो जाते हैं। किडनी ट्रांसप्लांट के मामलों में ऐसे उदाहरण खासे देखने को मिल जाते है। यह केस भी छ: साल के एक बच्चे का है।

चार माह तक वह पूरी तरह ठीक था। कभी भी जुकाम- खांसी जैसी शिकायत नहीं हुई। मगर अब, मौत को करीब पाकर ऐसे बीमार बच्चों का साहस देखने लायक होता है। अपने ही लोगों की उपेक्षा भरी बातें। मन की टीस दुख भरे कीचड़ में ढह जाती है। मन करता है, तेज स्वर में रोएं। ताकि समाज तक उसका दर्द पहुंचे। मैसेज पहुंचे,यही कि जागों रे दुनियां वालां मदद करो ना,ताकि मौत को धराशाही किया जा सके। मगर कैसे। ऐसी बातें नौटंकी का पार्ट तो बन सकती है, पिता अपनी बीमारी का बहाना मनाता है। मां भी बीमारी का कोई ना कोई बहाना खोज ही लेती है। सच तो यह भी है कि किडनी ट्रबल का शिकार यह बालक अस्पताल के जनरल वार्ड में अकेला बैठा है। दर्द से छटपटाता। खुद में सिमट रहा है। मौत करीब है। पुकारती है, पर नहीं मरना मुझे। कोई तो आएगा पैगम्बर बन कर। मदद का सागर। भोर होते ही खुशियां लेकर आता है। मगर संध्या ढलने पर। बस यही सवाल दिल में चुभता है। सच में चुभता है।

मन में गूंजती है यह आवाज ......। साहस का प्रतीक बना रह। खुशी और गम तो जिंदगी के ख्ोल का अंश है। कुदरत की परीक्षा है। कब कौन होगा पास और कौन होगा फेल। इसकी भविष्यवाणी करना सहज नहीं है। मेरी कहानी का यह मासूम बालक जे.के.लॉन के जनरल वार्ड में बैठा है। पहले से तीसरे नम्बर के बैड पर। पास में पापा जी का मोबाइल रखा है। टूटी सी गाड़ी। प्लास्टिक के ये खिलौने, जिंदगी के दर्दनाक सीन को बर्दास्त करने में मदद किया करता है। अजय दोसा के निकट सिकंदरा गांव का रहने वाला है। गरीब परिवार से है। पिता मामूली कर्मी है। जयपुर में जे.डी.ए. सर्किल पर, रेड लाइट के निकट। जैसे ही ट्रेफिक ठहरता है,एक हाथ में सस्ते पैन लिए। करीब -करीब हर कार की अगली सीट पर बैठे सेठ जी के निकट पहुंच कर गिड़गिड़ाने लगता है......।

एक बालपैन तो खरीदो सेठ जी। आपक ा सहयोग चाहिए। मेरे मासूम की दोनों किडनियां खराब है। ट्रांसप्लांट करवाना है। दो से तीन लाख रूपए की व्यवस्था करनी है। कहां से आएगा इतना पैसा। बेबसी में राह नहीं दिखती है। हो सकता है आपका सहयोग से मेरे बीमार बच्चे को नई जिंदगी दे सकता है। मन की पीड़ा। असल दर्द। किसी का दिल पसीज जाता है। सस्ते से बाल पैन की एवज में जेब में हाथ डालता है। दस- बीस रूपए का नोट कर्मयोगी पिता के हाथों में थमा देता है। बहुत से निष्ठुरों से भी सामना हो जाता है। नफरत भरी निगाहों से, गुस्सा उगलते हुए। इस कदर क्रूर वाणी लिए.....। चल भाग यहां से। काम-धाम करता नहीं है। आ जाएंगे, मूड खराब करने। दुखी पिता की ओर से नजरें छिपा कर। गाड़ी की विंडो की ओर से मुंह फेर लेता है।

फुटपाथ के दर्द से दो कदम आगे बढ कर। फिर से अस्पताल के किडनी वार्ड की ओर कदम बढते हैं। पहले बैड पर नन्हीं बच्ची की लगता है हालत खराब है। एक दिन पहले सारी रात उल्टियां की थी। आज डायलेसिस हुआ है। इसी दौर में एका एक उसे सांस लेने में परेशानी होने लगी थी। सिस्टम रोक ना पड़ा। केस आईसीयू के लायक था, मगर बैड खाली ना होने पर उसे जनरल वार्ड में शिफ्ट करके जरूरी मॉनिटर और आक्सीजन दी गई थी। तेज बुखार भी था। गीली चद्दर उसके शरीर पर डाल कर टेम्प्रेचर कंट्रोल करने की कोशिश की जा रही थी। यहीं दूसरे नम्बर बैड पर चार साल की एक बच्ची लेटी है। किडनी की प्रॉब्लम बताई गई है। मगर इनफेक्सन अधिक नहीं होने पर दवा और इंजेक्शनों से कंट्रोल करने का प्रयास किया जा रहा है। बच्ची के बैड के निकट लोहे की बैंच पर उसकी मां बैठी है। शिक्षित ग्रहणी जान पड़ती है। श्ोखावाटी के नवलगढ कस्बे की रहने वाली है। महिला कहती है कि उसकी बेटी को कोई परेशानी नहीं थी। हर वक्त शरारत। हालत यह कि कई बार तो वह काबू नहीं आती है। यहां अस्पताल में उसकी तरह- तरह की डिमांड रहती है। दाल की कचौरी का शोक है।

मगर बीमारों को भोजन खाने को दिया जा रहा है। कोई ओर चारा भी तो नहीं है। रोटी खाने के लिए बड़ी मिन्नत करनी पड़ती है। अजय के बिस्तर तक पहुंचने पर, बैड खाली पड़ा है। जाने कहां है। कुछ देर के इंतजार के बाद उसका चेहरा दिखाई देता है। ठिगना कद। गहरी खामोशी।हैलो.....कहकर, उसकी ओर हाथ बढाने पर। मुंह बिगाड़ता है। फिर ललाट की सलवटें जरा ठीली करके, हमारी ओर घूरने की लगता है। फिर से शुरू होता है बातचीत का दौर। मगर अफसोस....। आवाज बहुत धीमी है। जाने क्या कहना चाहता है। चेहरे पर सोजन अधिक हो जाने पर होठ जरा हिलते हैं। मगर क्या बोला। सस्पैंेस बन कर रह जाता है। अजय कुमार प्राय:कर बोलता नहीं हैं। मगर दिमाग सार्प है। महसूस सब करता है। खासकर कौन अपना है, कौन पराया हुआ है। बच्चे के बैड के पास लोहे की स्टूल पर बैठी बूढी भुआ, हाथों मंे मूंग की छिलके वाली दाल की कटोरी को हाथ में लेकर, चम्मच की मदद से उसके मुंह में ठूंसने की कोशिश करती है। मगर चिढता है।

कहता है, नहीं खाना दाल। हर दिन यही भौज। दूसरा कुछ खाने को नहीं है। राजू बताता है, अस्पताल से उन्हें दिन मंे पाव भर दूध। फल में सेंव का एक पीस। खिचड़ी तो रोज खानी ही पड़ती है। मन भर गया है। इसे देख कर ही मुंह से उबाकी आने लगती है। एल्टी ना करदे कहीं। अटेनेंट को बड़ा ही सतर्क रहना पड़ता है। अजय से दोस्ती के लिए मेहनत करनी पड़ती है। दिमाग से बड़ा शार्प है। अपने मोबाइल के नम्बर, बिना कोई झिझक के बता देता है। फिल्म देखने का उसे बहुत शोक है। पर अस्पताल के वार्ड में टीवी नहीं है। ऐसे में पापा के मोबाइल पर दिखाई जानी वाली फिल्मे और सीरियल भी उसे पसंद है। निकट रखा रेडियों एफएम तो दिन- रात बजता ही रहता है। दोस्ती उसे पसंद है, मगर किडनी ट्रबल से नहीं। बाप रे बाप। कब दूर होगी यह बीमारी। मन ही मन रोता रहता है। कू ठता रहता है। 



 

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