जयपुर में पुण्य कमाने वालों की कोई कमी नहीं है। विश्वास नहीं हो तो यह वाकिया सच की पोल खोलने के लिए काफी है। यह घटना जयपुर के जेकेलोन हॉस्पिटल के प्रांगण की है। शाम का समय है। घड़ी में पांच बज चुके है। तभी एक सेवाभावी संस्था की गाड़ी आकर रुकती है। वाहन के टायरों से उठी धूल खामोश होने के पहले लोगों का बड़ा समूह गाड़ी की ओर दौड़ कर लाईन में खड़ा होकर अपनी बारी का इंतजार करने लगे है।
इसी बीच स्वर उठता है, वाह आज तो हलवा और गर्मा गर्म पूड़ी। तसल्ली को ताक में रखने वाले लोगों में एक अधेड़ महिला , अपनी गोद में दो साल के बच्चे को लेकर लाइन को तोड़ने की कौशिश में धक्का मुक्की करने का प्रयास करती है। कुछ लोगों को यह गवारा नहीं होता है। उससे उलझ पड़ते है। तभी महिला गुस्साए हुए,अपनी गोद में लिया बच्चे को वही धूल भरे मैदान में डाल कर लाईन के छोर में चली जाती है। नन्हा बच्चा कुछ देर रो कर अपने कदम भोजन वाली गाड़ी की ओर बढ़ता है। मासूम जो था। बड़े भागने में भरे हलवे को ललचाई नजरों से देखता रहा और अपना नन्हा सा हाथ हलवे में डाल दिया। हलवा गर्म था। हाथों की उंगलियां जलने पर जोर जोर से रोने लगा।
दानी महाराज से यह देखा नहीं गया । जोर से चिल्ला या और मासूम बच्चे के गाल पर तमाचा जड़ दिया। आस पास खड़े लोगों की नजर इन पर गई। कई तरह के विचार देखने को मिले। साधु वाली पोषक में खड़ा बुजुर्ग बोला बाल लीला है। इसे क्यों मारा। सेठ बोला चोरी की है। बिगड़ी औलाद कहीं का। आगे भी ऐसा करेगा तो मार ही खायेगा। आधी बावली सी दिखने वाली औरत ने तो कमल ही कर दिया। सेठ को भला बुरा कहा और अपने हिस्से का हलवा बच्चे के हाथ में रख दिया। कुछ हलवा अपने हाथों से उसे खिला दिया। आम लोगों की राय थी,बच्चे के साथ मार पीट नही करनी चाहिए। क्या होगया हलवे पर मचल गया। बच्चे की मां को मानों सांप सूंघ गया। कुछ भी बोली नहीं।
स्नेह से उसके गालों को सहलाने लगी। लोगों ने ने जब उससे रोने का कारण पूछा तो उसकी व्यथा वाकई बड़ी दर्द भरी थी। बताने लगी, एक समय था जब उसके पास किसी बात की कमी नहीं थी। मेरे बुरे दिन तब रहे कि जब मेरे आदमी को शराब की लत लग गई। दिन रात बस एक ही काम था,बस शराब ही शराब। इसी के पीछे मेरा परिवार उजड़ गया। नसे पते के चक्कर में उसका लीवर खराब हो गया। जो पैसा जोड़ा था सब का सब खर्च हो गया। एक समय था जब मेरे बच्चों को मंहगा से महंगा फल दूध और खिलौने दिलवा करती थी। राजकुमार की तरह पाला पोसा । रहा सवाल हलवे का, मेरा रूटीन था। हर मंगलवार को मेरे हाथ से बना भोजन खिलाया करती थी,वह भी बड़े प्रेम सम्मान के साथ।
पर बुरे दिन तभी आगये जब हमे छोड़ कर हमेशा के लिए छोड़ गए। उनके मरने के बाद सास ससुर और देवर ने हमे घर से निकाल दिया। क्या करती। हमारे खाने के लाले पड़ गए। मजबूरी में मैंने कपड़ों की सिलाई का काम शुरू कर दिया। जो है जैसा है बालको को अच्छा संस्कार दिए। फिर यह बालक ही तो था। गलती कर गया। वाकिये में एक बात सामने आई। कुछ लोगों ने पैसा बना लिया है। दान के नाम पर लोगों सी पैसा लेना और अपना ठप्पा लगा कर पुण्य कमाने का कारोबार करना। देखने को मिला की जयपुर में कई सारी संस्थाएं है। जिनकी रोजी रोटी इसी पर चल पड़ी है। दिन में थोड़ी मार्केटिंग करनी पड़ती है। जयपुर में ऐसे बहुत से लोग दान पुण्य करना चाहते है।
मगर उन के पास वक्त की कमी है। ऐसे में इस तरह की संस्थाओं की मार्फत हॉस्पिटल और फुटपाथियो के बीच भोजन और दूध बिस्किट बटवा देती है। इसमें सारी व्यवस्था इन संस्था की होती है। ठेके पर हलवाइयों से समान तैयार करवा कर नियत इस्थानों पर पहुंचा देती है। साथ साहूकारों को बस यही करना होता है की मौके पर जाकर इन सामग्रियों को अपने हाथों से वितरित करना होता है। संस्थाएं अपना कमीशन ले लेती है। दोनों पक्षों का काम हो जाता है। दान वाली राशि की बकायदा रसीद भी दी जाती है। साथ ही फोटो ग्राफी की व्यवस्था भी साथ में करदी जाती है।
अब तो इन संस्थाओं का एरिया भी फिक्स होने लगा है। सेठ साहू करों से लगातार संपर्क होने पर बरसी,बर्थडे पार्टी और शादी समारोह में बचा कूचा मिष्ठान और भोज्य सामग्रियों का यथोचित उपयोग हो जाता है। मगर इसके गलत परिणाम भी होने लगे है। सवाल इस बात का उठता है की पैसा किस का और पुण्य किसने कमाया।अब तो धार्मिक अनुष्ठान पूजा पाठ भी ठेके पर होने लगे है। मगर यह नया दौर कितना सही है। आप ही जाने।