जयपुर। गरीबों का कौन मसीहा। सहारा देने वाला है कोई...। दर्द भरी दास्तान है इनकी,कोई तो सुनो इनकी कहानी...। दो- चार नहीं, सड़ी जिंदगी के दृश्य आम हो गए हैं। ठीक उसी तरह,कड़वा सच है साहब! ..हम अनाथों का कोई ठिकाना नहीं। नंगी जमीन का बिस्तर दे दिया,लोरी सुनने के उम्र मेंं तूने इनके हाथों में भीख मांगने वाली कटोरी पकड़ा दी । जिंदगी भर का शोर दे दिया। क्योंं बेकार ही इन्हें जिंदगी देकर धरती पर बोझ दे दिया।
इस तरह के वाक्य किसी फिल्मी दुनिया के नहीं है । इन गरीबों की दुनियां की असलियत है। नकाब में सिसकती दुविधाएं बन गई है... यह सीन है, खातीपुरा रोड़ का। आर्मी के क्वार्टरों के ठीक पहले, कोई दस- पंद्रह परिवारों की अधमरी कुटियां दिखाई दे जाती है। सुबह का वक्त है। बचपन की भूख है। क्या करें, बेबस हैं। नादान बच्चों से बर्दास्त नहीं होती। दो दिन पहले इसी इलाके में कोई बड़ी पार्टी हुई थी। ढेर सारी झूंठन खाने को मिल गई थी। मीट क ी खुचरन से पेट भर गया था, थोड़ा बहुत सुबह के लिए रख दिया था। यही सोच कर कि शुक्रवार के दिन ऐसे मौके प्राय:कर आते नहीं है। इसी के चलते कुछ बोटी बचा कर रखली थी। पर इन नान्यों का क्या किया जाए हर दिन नई - फरमाइस की जाती थी। मां की डांट कोई असर नहीं कर ती थी।
छप्पर बस्ती में रह रहे फक्कड़ परिवार का छप्पर रो रहा था। कि सी बच्चे के रोने की आवाज आ रही थी। मामूली सी जिद थी। कहते थ्ो, पूरी एक रोटी चाहिए। और कुछ नहीं। अला भाई झोंपे के पीछे की ओर सलाम भाई का आधा टूटा मकान है। टूटे हुए दरवाजे हवा में झूल रहे हैं। इसी के बीच, बारिश की बोझार से खौफ खाकर, टायर वाले रबर की निवार बनाकर, कमर सीधी करने को ठीक सी जगह मिल गई थी। भाई जान का कहना था कि अलादीन छ: बच्चोें का बाप है। जिनमें तीन बच्चे अभी छोटे हैं। शरारती है। बाक ी के तीन में एक बेटी शादी के लायक हो गई थी। दो निकट के सरकारी स्कूल में पढने को जा रही थी। रोजगार के नाम पर भाईजान के पास कुछ भी नहीं था। कभी मिल जाती थी मजदूरी। मगर तीन दिनों से शहर में हो रही लगातार बारिश के चलते रूखी रोटी तक नसीब में नहीं हो पा रही थी। बच्च्ो तो बच्चे थ्ो, रोटी की जगह केक का टुकड़ा चाहिए था। कहां से आता, नसीब में पिटाई लिखी थी। मां के हाथ की थप्पड़ भोर होते ही अक्सर खानी पड़ती थी। अलाद्दीन शांत स्वभाव का था। अपने में ही मस्त रहता था। जेब में बीड़ी रखा करता है, और बारिश की सीलन खाकर कागज की तरह कमजोर हो गई थी। भाई जान की कुटिया में चारपाई नाममात्र की, एक ही थी।
श्ोष मैम्बर फर्श पर ही दरी बिछा कर सो जाया करते हैं। गर्मी- गर्मी तो काम चल जाता है, मगर इन दिनों तो बारिश की बोछारें इन्हें परेशान किया करती थी। आलिया क ा ठिकाना रोड़ से कोई दस कदम नीचे की ओर ढलान में था। थूल चाटती पगदंडी थी। आने - जाने के लिए सुविधा के तौर पर हाईवे सा काम आ रही थी। यहीं फुटपाथ पर चाय की थड़ी है। रहमदार है। आलिया उर्फ अलाद्दीन के घर मेंं सुबह के वक्त जब भी दूध बीत जाया करता था, उधारी मेंं चाय वहीं से आया करती थी। बच्चों की शिक्षा को लेकर आलिया में कोई खास दिलचस्पी नहीं है। जब इसी तरह की आवाज उसके कानोंं में पड़ती थी, कुतिया की तरह दांत दिखाया करती थी। यही कारण था शायद, कुटिया के कोने में फटे बस्ते में हाथों से मुड़ी हुई, गोल-गोल गेंद बनाकर दिन भर उत्पात। दीदी की डांट तो उनके लिए रूटीन बन गई थी। कापी या स्लेट पैंसिल, शायद ही कभी दिखाई दे जाया करती थी। वह खुद काम पर जाया करता था, निकट के घरों में जाकर बेगम झाडू पोछे का काम कि या करती थी। भौर होते ही चाय के साथ- साथ रूखी रोटी आपस में बांट दी जाती थी। ताजा रोटी कहां मिल पाती थी। रात के समय बावरी सी सायरा, खाना पकाते से समय, सभी के लिए एक- एक मोटी रोटी नाश्ते के लिए बना लिया करती थी।
इसी को गोल करके। नमक मिर्च का लेप किए हुए। चाय में भिगो कर बड़े ही खाई जाती थी। रहा सवाल केक का। ना जाने कहां से सीखा यह शब्द । अम्मी या पापा जान तो कभी खरीद के लाए ही नहीं थ्ो। मगर हां बड़ी दीदी का दिल भी बड़ा था। आसपास के इलाके में जब भी किसी घर या पार्क में जब भी पार्टी हुआ करती थी। पैसे वालों की तोंद तबले की तरह बजने लगती थी। इसी की झूंठन में तरह - तरह के मिष्ठान और केक या पेस्ट्री तो फिक्स थी। किसी दिन नसीब साथ देता था तो मीट के टुकड़े और उसके शोरबे...। वे भी मिल जाया करते थ्ो। क्या स्वाद था उनका ...। बच्चों के खाने- पीने की फर्माइस इसी से पूरी हो जाया करती थी। सायरा का जहां तक सवाल है, पांचवी कक्षा पास कर चुकी थी। आगे पढना चाहती थी। मगर कैसे पढती, परिवार की जिम्मेदारी जो उसके सिर पर आ गई थी। घर में रह कर रोटी पकाने वाली बाई जो बन गई थी। छोटी बहन का भी यही काम था, रसोई के काम में दीदी की मदद कर लिया करती थी।
झुठे बर्तनों को साफ करने के अलावा परिवार के कपड़ों की धुलाई भी कर लिया करती थी। गाना सुनने का उसे बड़ा शोक था। ना जाने किसी के कबाड़े के भीतर से बीमार सा एफ.एम. लेकर आई थी। दिन भर वही टी... टी ...करता रहता था। कहती थी वह, फिल्मी गीत सुन कर नींद अच्छी आया करती है। आधा दर्जन कुटियां वाले इस परिवार के अलावा हसन पुरा की मजदूर कॉलोनी में इसी तरह के कई सारे परिवार रह रहे थ्ो। ठीक उसी तरह, आधा केक और आधी चपाती वाला गीत गाया करती थी।