Jaipur : गांजे की उपयोगिता पर हुए अनुसंधान गौर करने लायक, शीघ्र शुरू होगी क्लिनिकल ट्रायल

Samachar Jagat | Wednesday, 23 Nov 2022 05:12:39 PM
Jaipur : Research on the usefulness of cannabis is worth noting, clinical trial will start soon

जयपुर। नश के तौर पर बदनाम गांजा क्या अनेक बीमारियों के उपचार में काम आ सकता है, इस विषय को लेकर यहां के आयुर्वेद में शोघ कार्य फिर से गति पकड़ने लगा है। बताया जाता है कि कोविड-19 महामारी और फिर मीडिया के एक पक्षीय कवरेज को चलते  शिथिल हो गए। मगर अब कंपनी (बोहेको) के निदेशक जहान पेस्तून जमास और जयपुर के आयुर्वेदिक अनुसंघान संस्थान के शोध कार्यो पर यदि गौर किया जाए तो वे इसे केवल नकारात्मक नहीं मानते।

इसके विपरीत वो कहते हैं कि यदि गांजे के सकारात्मक उपयोग पर सरकारी स्तर पर मदद अपेक्षित है। अनुसंधान किया जाए तो, इस प्रस्ताव को लेकर वो बोहेको और राजस्थान के जयपुर में मौजूद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ आयुर्वेद के साथ हुए करार का ज़िक्र किया जा रहा हैं और कहते हैं कि कंपनी के बनाए आयुर्वेदिक फ़ॉर्मुले के क्लिनिकल ट्रायल के लिए ये करार किया गया है। प्रदेश में इसकी तैयारियां चल रही है। कंपनी के बनाए फॉर्मूले का ट्रायल ऑस्टियोथोरासिस के मरीज़ों पर किया जाना है।  जहान पेस्तून जमास ने एक न्यूज एजेंसी को बताया कि ’’आयुर्वेद में क़रीब 200 अलग-अलग जगहों में गांजे का ज़िक्र है। हमें करीब देढ़ साल पहले लाइसेंस मिला और हमारे कई उत्पाद बाज़ार में उपलब्ध हैं। हम मुंबई के एक बड़े अस्पताल के साथ टर्मिनल कैंसर के मरीज़ों के बीच इससे बनी दवा के इस्तेमाल के लिए क्लिनिकल ट्रायल शुरू करने का भी इंतज़ार कर रहे हैं ’’।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ आयुर्वेद में इस स्टडी को मार्गदर्शन करने वाले प्रोçफ़ेसर पवन कुमार गोडतवार ने बताया, ’’इस पौधे के मादक पदार्थ का नाम गांजा है. संस्कृत में इसे विजया कहते हैं. आयुर्वेद में इसके इस्तेमाल को बुरा नहीं माना जाता. कई आयुर्वेदिक दवाएं हैं जिनमें न केवल विजया का इस्तेमाल किया जाता है बल्कि अफ़ीम का भी इस्तेमाल होता है। ये इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसे कैसे इस्तेमाल करते हैं और इसका इस्तेमाल कितना महत्वपूर्ण है।’’ मुंबई के कस्तूरबा मेडिकल सोसायटी में आयुर्वेदिक सलाहकार डॉक्टर कल्पना धुरी-शाह कहते हैं, ’’जिन मरीज़ों को ये बताया गया कि दवा में गांजा भी है, उनमें इसे लेकर कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। एक्ज़िमा जैसे त्वचा के रोगों में ये दवाएं बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं।’’

डॉ. धुरी-शाह के एक मरीज़ ने कहां कि , ’मेरे पैरों में खुजली शुरू हो गई थी और जहां खुजली होती थी वहां में काले धब्बे बन जाते थे. मुझे तेल दिया गया कहा गया कि इसकी दो बूंदे नाभि में डालनी हैं. डॉक्टर ने मुझे बतया था कि इसमें गांजे के पौधे का अर्क शामिल है। मुझे इस कारण किसी तरह का साइड इफ़ेक्ट नहीं हुआ है. न ही मुझे इसकी लत लगी है. और कुछ महीनों में मेरी बीमारी भी पूरी तरह ठीक हो गई।’ बेंगलुरु में मौजूद नम्रता हेम्प कंपनी के प्रबंध निदेशक हर्षवर्धन रेड्डी सिरुपा का मानना है कि ’’इसका असर ये होगा कि गांजे की खेती और इससे इंडस्ट्रीयल और मेडिसिनल प्रोडक्ट बनाने के लिए रीसर्च की अनुमति देने के लिए नियमन प्रक्रिया बनाने का फ़ैसला लेने में अब तीन से चार साल की देरी हो सकती है।’’

सिरुपा का डर उन व्यवसायियों के डर से मिलता-जुलता है जिन्होंने ये सोच कर इस क्षेत्र में कदम रखा है कि क़ानून में उचित बदलाव के साथ इस पौधे का इस्तेमाल कृषि और बागवानी, कपड़ा उद्योग, दवा और स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों में किया जा सकता है.इन उद्यमियों का आकलन है कि साल 2025 तक ये इंडस्ट्री सौ से देढ़ सौ अरब अमरीकी डॉलर की हो सकती है। दिल्ली के एम्स में नेशनल ड्रग डिपेन्डेन्स ट्रीटमेन्ट सेंटर (एनडीडीटीसी) और मनोचिकित्सा विभाग में प्रोçफ़ेसर डॉक्टर अतुल अम्बेकर ने अपने शोध कार्य मे बताया कि ’’मूल रूप से इस पूरे विषय में कई ग्रे एरिया है। इस मामले में अगर ये तय हो कि क्या मान्य होगा और क्या नहीं तो इससे काफी मदद मिल सकती है. लेकिन आम तौर पर हमारे मौजूदा क़ानून ये संदेश देते हैं कि इससे दूर रहो। इसके नज़दीक जाने की कोई ज़रूरत नहीं है।’

विडम्बना ये है कि ये क़ानून उस दौर में मौजूद हैं जब एम्स और एनडीडीटीसी ने देश में की अपनी ताज़ा स्टडी में पाया है कि हमारे समाज को सबसे अधिक ख़तरा कहां से है. इस स्टडी के लिए बीते साल सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय ने आर्थिक मदद दी थी। डॉक्टर अम्बेकर कहते हैं, ’’130 अरब की आबादी में क़रीब दो करोड़ लोग भांग (भारत में भांग क़ानूनी तौर पर उपलब्ध होता है), चरस और गांजा जैसे गांजे के पौधे से बने उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं.’’।’’ये देखना भी दिलचस्प है कि वैश्विक औसत के मुक़ाबले भारत में गांजे का इस्तेमाल कम है, अफ़ीम से बनने वाला हेरोइन. जहां दुनिया में औसतन 0.7 फीसदी लोग अफीम से बने नशीले पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं वहीं भारत में 2.1 फीसदी लोग इस तरह के पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं।लेकिन उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश ऐसे दो ही राज्य हैं जिन्होंने इससे जुड़े कानून बनाए हैं।

और इन क़ानूनों में मौजूद कमियों के कारण उद्यमियों का इस क्षेत्र में काम करना असंभव हो गया है।सिरुपा कहते हैं, ’’उदाहरण के तौर पर उत्तराखंड का क़ानून कहता है कि ’’गांजे के पौधे में 0.3 फीसदी से कम टेट्राहाइड्रोकैनाबिनॉल (टीएसी) होना चाहिए इस मामले में कोई स्पष्टता ही नहीं है। क्योंकि नमी वाले इलाक़ों में मौसम की मार से बचने के लिए गांजे का पौधा अधिक मात्रा में टीएचसी पैदा करता है।

भुवनेश्वर में मौजूद डेल्टा बायोलॉजिकल्स एंड रीसर्च प्राइवेट लिमिडेट के विक्रम मित्रा का कहना है, ’’उत्तराखंड ने गांजे की खेती के लिए 14 उद्यमियों को लाइसेंस दिए गए हैं लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया क्योंकि इसके लिए विदेश से बीज आयात करने होते हैं.’’गांजे के पौधे में जो दो रसायन पाए जाते हैं वो हैं टेट्राहाइड्रोकैनाबिनॉल यानी टीएचसी और कैनाबिडॉल यानी सीबीडी। गांजे में नशा टीएचसी की मौजूदगी के कारण होता है.लेकिन वैज्ञानिक समुदाय को पौधे में मिलने वाले दूसरे रसायन कैनाबिडॉल में दिलचस्पी है क्योंकि इसका इस्तेमाल स्वास्थ्य क्षेत्र में किया जाता है। टीएचसी में भी कई ऐसे गुण हैं जिस कारण सीमित मात्रा में लोगों के इलाज के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। 



 

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