दुनिया है। तरह तरह के लोग है। जीने के अपने अपने मकसद है।यह स्टोरी जयपुर के एक युवक की है। अनुकरणीय है। युवक का नाम मुकेश मित्रा है। उम्र अधिक नही है। जिंदगी के तीस साल पार की होगी। मगर विचार सबसे अलग। मुकेश से मेरी मुलाकात यहां के जेकेलोन अस्पताल के प्रांगण की है। सायं के पांच बजे थे। भोजन बांटने वाली गाड़ियों का समय हो गया था।कोई सौ के लगभग होगी।
अमूमन हर दिन यही माहोल बन जाते है। मगर एक बात जरा अलग थी। एक युवक की एंट्री। सफेद रंग की स्वीट कार मेरे सामने थी । पीछे की सीट पर पीतल का बड़ा भगोना था। गर्मा गर्म आलू की भाजी । धूवा उठने के अलावा मन को भाने वाली खुशबू। भोजन बांटने वाली गाड़ियां एक के बाद एक रवाना हो गई। चारों ओर ना जाने कितने लोग कागज की प्लेट में रखी गर्मा गर्म पूडियों के स्वाद का आनंद लेते हुए। तभी अस्पताल के मेन गेट पर अजीब सी हलचल दिखाई दी। काले रंग का बुर्का पहने कोई तीन महिलाएं।जाने कौन थी। फिर बुर्का को पहने थी। मगर उनका क्रंदन। कुछ सुनासुना सा।भरी बदन वाली महिला। शायद इन तीनों में बुजुर्ग सी लग रही थी। महिलाओं के साथ दो जवान से लग रहे देहाती भी थे।
पहनावा हिंदू जैसा था। एक बार झटका सा लगा। यह क्या। आज के सांप्रदायिक माहोल में। हिंदू मुसलमान की गहरी दरार। छोड़ो जी। दंगेबाज लोगों से जरा हटकर था। जोभी हो मुझे अच्छा लगा। मैं करीब गया तो अजीब अहसास हुवा। मोती महिला की गोद में कोई बच्चा सा था।जी हां।बच्चा मार गया था। मगर लाश के साथ इतना प्यार। कुछ हो देर में सारा मामला समझ आया। मुस्लिम महिलाएं गरीब थी। अस्पताल के सर्जिकल वार्ड में इनसे मुलाकात हुई थी। वार्ड के सारे लोग मदद कर रहे थे। पैसे हो या भोजन सारी व्यवस्था। एक परिवार का माहोल नजर आया। मुस्लिम महिलाएं। परेशान लग रही थी। नवजात बच्ची के पेट में बड़ा ट्यूमर था।बड़ा ऑपरेशन था। ब्लड की जरूरत थी। बच्चे का परिवार टोंक से आया था।
जयपुर में कोई परिचित था नही। अनजाने लोगों ने यहां मदद की। मगर किस्मत ने साथ नहीं दिया।ऑपरेशन थियेटर से बाहर निकली तभी लगा था । या तो मर गई होगी या फिर जिंदा नहीं बचेगी। अस्पताल के आई सियू में मशीन पर रखा गया था। अजीब सा माहौल था। मसीनो की अजीब आवाज । मन घबराता था। कितनी सी देर रही होगी। तभी आवाज सुनाई दी। सलमा की मां कौन है।डाक्टर साहब बुला रहे है। कौन सी अच्छी खबर थी। मन घबरा रहा था तभी अजनबी युवक करीब आया।बड़ी भागम भाग की। पैसे की तो पोटली ही खोल दी। पूरी रात भाग दौड़ चलती रही। समस्या थी लाश का क्या किया जाए। सलमा की मां कहती थी। गांव ले जानी है छोटी। जिंदा ना सही। अल्लाह मियां की मर्जी है। इसके आगे किसी की नही चलती।
यहां लफड़ा एंबुलेंस का था। मुंह फ़ाड़ रह रहा था। लाश को गांव तक ले जाने के हजार रुपए मांगता था। कहां से आता इतना पैसा। नाम के पीछे नाटक करने वाले नौटंकी बाज एक एक करके वहां से खिसक गए। सलमा अकेली थी। बेटी की लाश को सीने से चिपकाए रह रह कर उसका चेहरा निहारती थी। मर गई। अपनी मां को अ केला छोड़ गई। क्या कहेंगी इसकी दादी को। जान से भी प्यारी जो थी। युवक अडिग था। अपने उसूलों का पका था। हिंदू हो या मुसलमान। सब देन जो है पावर दीगर की। वह लाश दिमाग में छा गई थी। जब भी सामने आती थी जके लॉन की तस्वीर वह लाश नजरों के आगे नाचने लग जाती थी। ना मालूम कब पीछा छोड़ छोड़ेगी। और वह युवक । कौन था। फिर कभी मुलाकात नहीं हो सकी। ना ही अखबार मीडिया में उसकी तस्वीर दिखाई दी।