जयपुर। मां बाप का पता नहीं,जयपुर के अनाथालय पाला और बढ़ा। बचपन को याद करता हूं तो।अनाथालय की सिली दीवार यादें आती है। तेज शीत लहर। मैदान की रेत में चिपटी हुई ओस की बूंदे। जतिन परेशान था। गंदे मैले कमरे से बाहर निकलना चाहता था। मैने कमरा बदलने की दरख्वास्त दी। आश्रम के नियम थे। ऐसे केस में कारण बताना होता था। मेरे पास कोई रीजन नही था। फिर करता भी क्या। गुस्से में आकर कमरे में लगा पोस्टर फाड़ दिया।
बात हॉस्टल वार्डन तक गई। फिर क्या, छड़ी ले कर मुझे जम कर पीटा। मेरी परेशानी ढेर सारी थी। फिर भी ना तो मेरा मकान था। ना ही परिवार। ले देकर आश्रम के बच्चे ही सब कुछ थे। हर उम्र के बच्चे थे। इन में से ही दोस्त और दुश्मन का चुनाव करना होता था। घरों में भाई बहिन बहन के झगड़े। इसी की तर्ज पर हमारे बीच गुटबाजी हवा करती थी। झगड़ा होता था। चोटी मोटी छोटे आजाती थी। मगर दर्द का अहसास नही होता था। धीरे धीरे मैं पक्का हो गया था।
देखते ही देखते दिन गुजरते गए। मैं बीस साल का हो गया था। आश्रम के नियम थे। मजबूरी थी। वहां से बाहर निकलना पड़ गया। चलते चलते दिन छिप गया। रास्ते में कोई ढाबा पड़ा। पेट भर खाना खाया। पास में पैसे नही थे। ढाबे वाले से पैसे लेने की बजाय काम देने को कहा। ढाबे में मुझे झूठे बर्तन धोना,भोजन सर्व करना। मेरी आदत खराब थी। ग्राहकों से झगड़े आम बात थी। ढाबे वाले ने मुझे वहां से भगा देता कि उससे पहले ट्रक के ड्राइवर से दोस्ती करके वहां से भाग लिया। पहली बार ड्राईवर के साथ गया तो। डर लगा। मेरे पांव कपने लगे थे। दिल की धड़कन इतनी तेज थी की मानो बाहर निकल जायेगा।
मैं डर गया था। ड्राइवर से कहा, यही कि मैं नहीं जा सकता। इस पर उसने कमर पर ढ़ोल जमा कर बोला, अरे तू तो फट्टू निकला। सड़कों पर खानाबदोशी में कई साल गुजर गए। बगल वाली सीट से ड्राइवर की सीट पर आ गया। कुछ दोस्ती ही गलत हो।गई। बस यहीं गलती हो गई। तेज बुखार हो गया।डॉक्टर के पास गया तो ढेर सारी जांचें लिख दी। रिपोर्ट आने में दो तीन दिन लग गए। इस बीच अपने कमरे जाकर आराम करने लगा । मेरी जांच रिपोर्ट आने पर डॉक्टर ने मुझे खड़का दिया। मुझे एड्स का मरीज बता दिया। मेरा कसरती बदन पोला हो चला था। चलते समय टांगे कांपने लगी थी। कई बार बातूनी सवारिया मिल जाती थी।
खुल कर अपना दर्द साझा करने लगा था। वहीं वैश्याओ के अड्डे। वही जाकर अपने आप को काबू नहीं कर पाया। एड्स का खौफ ही ऐसा था कि इसका नाम लेते ही दोस्तो से दूर होता गया। ढाबे वालों ने मुझे खाना खिलाना छोड़ दिया। मजबूरी के मारे जयपुर की सड़कों पर साइकल रिक्शा चलाने लगा था। बीमारी बढ़ती गई। इलाज के लिए टी बी सेनेटोरियम में एड्स के मरीज का अलग ही वार्ड था। कुल मिलाकर हम पांच मरीज थे। बाहर की दुनियां से एकदम कट होगया था।
सुबह शाम भोजन की सरकारी थाली मिल जाया करती थी। हाल।इतना खराब था कि हमारी आगे भोजन कुत्तों की तरह डाला जाता था। दुख होता था। पर सिवाय घुटन के करते भी था। अस्पताल का स्टाफ हमे देख कर हंसा करता था। लेडी नर्स भी हाथो से चहरा ढक कर हंसा करती थी। उनकी खुसर फुसर सुनाई तो नही देती थी। मगर मैं जानता था। उनका पूरा फोकस मै ही हुवा करता था। मेरी जिंदगी सड़ने लगी थी। एक एक कर एड्स के मरीज दम तोड़ने लगे थे। मुझे लगता था मौत मेरे सिराने खड़ी है। मगर वह भी मुझ पर हसा करती थी। लो अब तो उससे दोस्ताना मुझ से दूर होता जा रहा था।