जयपुर। जैनियों के पुराने मंदिरों की देश भर में कोई कमी नहीं है, मगर दिल्ली में लाल किले के निकट नेताजी सुभाषचंद बोस मार्ग,चांदनी चौक स्थित जैनियों के लाल मंदिर का इतिहास मुगलकालीन बादशाह शाहजहां से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि यह मंदिर अपने आप में कई तहजीबों और संस्कृतियों में विश्वभर के जैन मंदिरों में सबसे अनूठा माना जाता है। यहां की एक ओर विश्षता वहां का पक्षियो का चेरिटेबिल अस्पताल की है। जहां आज भी हर साल पंद्रह हजार पक्षियों का निशुल्क उपचार और पोष्टिक आहार निशुल्क उपलब्ध करवाया जा रहा है। मंदिर के सूत्रों का कहना है कि पक्षियों के अस्पताल के भवन का निर्माण 193० में ही किया गया था। मगर जैन मुनी देशभूषण जी के निर्देश में 1950 मं औपचारिक रूप से वह कार्य करने लगा है।
यहां की खास बात यह है कि गंभीर रूप से घायल या बीमार पक्षियों के उपचार के लिए इनडोर जनरल वार्ड बनाया गया है। जहां बीमार पक्षी पूरी तरह ठीक होने पर हर शनिवार को उन्हें खुले छोड़ा है,ताकि स्वस्थ्य पक्षी उड़ कर फिर से स्वतंत्र जीवन शुरू कर सकता है। अस्पताल में पक्षियों के अलावा गिलहरी के भी ईलाज की व्यवस्था है। मांसहारी पक्षियों को वहां अलग से रखा जाता है। जैन धर्म की विश्षता यह भी रही है......भगवान महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षत्रकाल समय या जाति की कोई सीमा नहीं है।
उनकी आत्मा एक ही रही है। इसीलिए दूसरों के प्रति वही विचार व व्यवहार रख् जो हमें पसंद हो। यही श्री महावीर के जियो और जीने दो सिद्धांत पर आधारित है। प्रसिद्ध जैन मुनी समन्तभ्रद ने तीर्थंकर महावीर के विचारों को सर्वोदय की संज्ञा दी थी। सूत्र यह भी बताते हैं कि अहिंसा का मतलब केवल सीध् वध को हिंसा नहीं मानना जाता है, अपितु मन में किसी के प्रति बुरा विचार भी अहिंसा व वर्तमान का समाजवाद तब तक सार्थक नहीं होगा जब तक कि अर्थिक विषमता रहे।
लाल मंदिर के इतिहास पर नजर डाली जाए तो मुगल बदशाह शाहजहां ने जैन धर्म के सिद्धांत से प्रभावित होकर जैन सेठ से शहर में आने के लिए कहा था। उन्हें दरिबा गली के आसपास चांदनी चौक के दक्षिण में कुछ भूमि दी थी। साथ ही जैन मंदिर बनाने के लिए विनम्र निर्देश दिए थ्। संवत 1548 में भृतराक जिनचन्द्र के पर्यवेक्षण में जीवराज पालीवाल द्बारा स्थापित संगमरमर की मूर्तियों का अधिग्रहण किया गया था। मंदिर का मुख्य भक्ति क्षेत्र पहली मंजिल पर है। वर्ष 1931 में जैन भिक्षु आचार्य शांतिसागर द्बारा मंदिर का दौरा किया था। जो कि आठ शताब्दियों की अवधि के बाद दिल्ली आने वाले पहले दिागम्बर जैन पुजारी के रूप में जाने जाते थ् इसलिए इस शुभ घटना को चिंहित करने के लिए मंदिर परिसर के भीतर एक स्मारक स्थापित किया गया था। इसके अलावा एक बात और, वह यह कि मुगल काल के मंदिरों में शिखर के निर्माण की अनुमति नहीं थी। देश की आजादी के बाद इस मंदिर का पुन: निर्माण किया गया था। तब तक मंदिर का औपचारिक शिखर नहीं था।