गर्भ से निकली हजारों वर्ष पुरानी जैन प्रतिमाएं, आकर्षण का केन्द्र बनी

Samachar Jagat | Friday, 07 Oct 2022 09:38:33 AM
Thousands of years old Jain idols emerged from the womb, became the center of attraction

जयपुर। कहने को देश- विदेश में एक से एक अनूठे जैन मंदिर देखने को मिल जाएंगे, मगर इनमें भगवान आदि नाथ जी के मंदिर की बात ही और है। हर साल वहां विशाल मेला भरता है। कई हजार जैन और अजैन बंधु वहां आकर पूजा अर्पण किया करते हैं। यह मंदिर बहुत अधिक पुराना होने पर उसे अतिशय क्षेत्रके रूप में जाना जाता है। यह त्रिलोक तीर्थधाम व बड़ा गांव ज्ौन मंदिर अतिशय क्षेत्रके रूप में प्रसिद्ध है। वहां जाने के लिए दिल्ली - सहारणपुर रोड़ पर उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के ख्ोडका कस्बे के निकट रावण उर्फ बड़ा गांव नामक स्थान पर जाना होता है। ख्ोड़का से बड़ा गांव जाने के लिए चार किलोमीटर पक्की सड़क है। यहां से रिक्सा , ऑटो रिक्सा , तांगा, निज वाहन आदि से आसानी से वहां पहुंचा जा सकता है। वहां से त्रिलोक तीर्थ स्थान धाम बड़ा गांव के रास्ते में भक्त जनों की भीड़ शुरू हो जाती है। यह स्थान रमणिक होने के साथ- साथ जैन धर्म का प्रमुख तीर्थ स्थल के रूप में भी जाना जाता है। यहां 16 मंजिला 317 फुट ऊंचा विशाल मंदिर है। जिसके भीतर भगवान आदिनाथ जी की पद्ममासन 31 फिट ऊंची प्रतिमा दार्शनिक है। यहीं पर मान स्तंभ भी चितार्कर्षक है। त्रिलोक धाम लगभग पचास हजार वर्ग गज में एतिहासिक स्थल धार्मिक स्थल के रूप में फैला हुआ है। 

इस मंदिर की प्रसिद्धि अतिशय क्षेत्र के रूप में है। कुछ वर्षो पहले तक वहां एक टीला था, जिस पर झाड़ झंकाड़ उगे हुए थे । देहात के लोग वहां मनौति मनाने आते रहे। अपने जानवरों की बीमारियों या फिर उन्हें  नजर लगने पर उनके दरबार में उपस्थित होते थ्ो और बड़ी श्रद्धा के साथ उनके आने का सिलसिला समूचे साल तक बना रहता था। बहुत से लोग अपनी बीमारी, पुत्र प्राप्ति और मुकदमों की मनौती मनाने आते थे । बाद में बालू रेत के इस टीले पर दूध चढाए जाने की प्रथा थी। इससे उनके विश्वास के अनुरूप उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती थी। उनका मानना था कि इस टीले के नीचे किसी जमाने का क ोई विशाल मंदिर था। किन्तु मुगल काल में धर्मान्धता अथवा प्राकृतिक प्रकोप के कारण वहां नष्ट हो गया होगा और बाद मेंं रेत के टीले के रूप मंेवह बदल गया। 

एक बार ऐलक अनन्तकीर्ति जी ख्ोड़का ग्राम में पधारे। उस समय प्रसंगवश वहां के लोगोें ने उनसे इस टीले की तथा उसके अतिशय की चर्चा की। फलत: वे उसे देखने के लिए गए। उन्हें विश्वास हो गया कि इस टीले के नीचे प्रतिमाएं दबी हो सकती है। उनकी प्रेरणा से वैसाख सात संवत 1976 क ो इस टीले की खुदाई करवाई। इस पर प्राचीन मंदिर के भगÝावश्ोष निकले। उसके बाद बड़ी मनोज 1० दिगम्बर जैन प्रतिमाएं निकली थी। किंतु वे बुरी कदर खंडित हो चुकी थी। अत: यमुना नदी में प्रवाहित कर दिया। धातु की प्रतिमा ओं पर कोई लेख लिखा हुआ नहीं था। किन्तु पाषाण प्रतिमाओं पर लेख अंकित था। उससे ज्ञात हो पाया कि इन प्रतिमाओं में कुछ 12वीं शताब्दी की थी। और कुछ 16 वीं शताब्दी की थी। इससे उत्साहित होकर यहां एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया गया और ज्येष्ठ शुक्ल 9 संवत 1979 को यहां भारी मेला हुआ। इसके बाद संवत 1979 में यहां समारोह पूर्वक शिखर की प्रतिष्ठा हुई। तथा यहां विभिन्न स्थानों की मूर्तिया को लेकर प्रतिष्ठित किया गया।

 बताया जाता है कि जिस स्थान पर खुदाई की गई थी, वहां पक्का कुंआ बना दिया गया। यह कु आं 17 फिट गहरा था। इसका जल अत्यंत शीतल और स्वादिस्ट और स्वाथ्यवर्धक था। इसके सेवन से अनेकों की बीमारियां ठीक होने पर दूर- दूर से रोगी आने लगे। इतना ही नहीं इस कुंए का जल कनस्तरोंे मेंं रेल द्बारा बाहर जाने लगा। प्रत्यक्षदर्शियोंं का कहना है कि ख्ोडका के स्टेशन पर प्रतिदिन 1००- 2०० कनस्तर जाते थे। वहां से उन्हें बाहर भ्ोजा जाता था। अब उसके जल में पहले सी विश्ोषता नहीं रही। मंदिर में मनौति मनाने वाले जैन व अन्य समाज के लोग बड़ी श्रद्धा के साथ आते हैं। भक्तजनों के आने का सिलसिला कम होने की अपेक्षा दिनों- दिन बढता ही जा रहा है।



 

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