जयपुर। जयपुर की सड़कोंं पर दौड़ती भीड़। सायं- सायं करती टायरों की आवाज। जयपुर की आत्मा यहीं पर जा कर खत्म नहीं होती है। एक और पीड़ा की टसक , और फुटपाथियोें का दर्द चींखता करर्राहता है। मगर शहर की समृद्धियों की प्रतीक यह दुनियां, आलीशान कारों में ही सांस लेती है। फटेहाल चेहरोें की ओर झांकने की फुर्सत किसे है ...। हो भी तो कैसे। फटे हाल इन गरीबों के पास ना तो आधार कार्ड है और नहीं तो वोटर लिस्ट में कार्ड बाउंंस जो हो गया है। नोकरशाही के डंडे के तले शहर में लोकतांत्रिक व्यवस्था धूल मेंं गिरी अपने अस्तित्व के लिए तरस रही है। शहर की बात पैंडिंग में रखो, गांवों में भी एक ही शोर सुनाई देता है... भागोें रे, मानों वहां अशर्फियां बरस रही है। सच पूछो तो जयपुर में गरीबों के लिए है भी तो क्या। दुनियां की दौड़ मेंशरीक होने से पहले ही वे हार मान चुके हैं। मत पूछो बस। गरीब और फटे हाल लोगोंे के लिए वहां कोई ठौर-ठिकाना नहीे है। बांसी बेबसी है। मन म्ों कसमसाती पीड़ा... कु छ कहना चाहती है। मगर उनके होठोंे पर आते - आते सीलबंद हो जाते हैं।
फिर आज का सवाल यही है कि हम रो दिए तो आंसुओं को पौछने वाले भी लगता है कि वे मनमसोसे बैठे लगते हैं। फिर वहीं आंसुओें से भरी रात ना जाने कितने घंटे करवटोें पर छा जाती है। ले देकर चिंता इसी बात को लेकर है, कल की रोटी की भीख आखिर कहां मिल पाती है । रोटी का रोना- धोना भी जायज है। फुटपाथ पर बसे इन लोगों का भोजन पत्थर तगारी उठाने पर निर्भर करता है। दुख तो इसी बात का है, शहर की श्रमिक मंडी मंे काम करने वाले श्रमिक तो बहुत हैं, मगर सेठ- साहुकारों की संख्या दिनोंे दिन कम होती जा रही है। काम भी किश्मत वालों को ही मिल पाता है, वरना दिन भर आंख्ों फाड़ते फिरो, संध्या डरावनी लगती है। खाली जेब लौटने में बीबी - बच्चों से डर जो लगता है। बच्चों की जिद अधिक नहीं होती। पांच रूपए वाला बिस्कुट का पैकिट या फिर एक रूपए वाली टोफी। वह भी ना मिले तो मासूम बालक का मुंह फ ूल जाता है।
हर तरह की नाराजगी का मसाला उनकेे पास ही है। राम निवास बाग की फुटपाथ पर बैठा बूढा बाबा की हालत बच्चों से भी बदतर हो गई है। बेबसांे की कतार में, कोई सत्तर पिच्येतर साल के वृद्ध को सांस की शिकायत भी है। खांसी उठती है। मरी रूकने का नाम ही नहीं लेती। खों...खों कर, उसक ा चेहरा लाल हो जाता है। बाबा मंसूर अलि यहां की फुटपाथों पर पिछले दस सालों से रह रहा है। एक पांव से अपंग होने पर चलना- फिरना असहज हो गया है। भला हो उन लोगोें का और सेवा भावी संस्थाओं का। सुबह और सायं के समय निशुल्क भोजन वितरण की व्यवस्था उनके ही जिम्मे टिकी हुई है। बिहार से आया एक सख्स दुला राम बताता है कि उसके मां- बाप नहीं रहे। कोरोना के जबड़े में समा गए थ्ो। बीबी - बच्चों ने साथ छोड़ दिया।
क्या करता गांव में रह कर । वहां के पैसे वाले जमीदारों के दिल में राम- रहीम नहीं है। फटेहाल और झुर्रियोें से भरा जिस्म। एक पांव कटा होने का ईशारा करता है। लंगड़े- लूलों के लिए सरकार के पास कोई एलम नहीं है। मगर हां.....। जानकारी में रहे कि फुटपाथ पर सोने का एक फायदा यह भी होता है कि दिन ढलने के साथ ही दानदातों की भोजन वितरणवाली गाड़ियों के आने का समय शुरू हो जाता है। भोजन वाले इन पैकिटों मंें तीन - तीन , चार- चार पुड़ियों के अलावा थोड़े से चावल। एक सब्जी और फ्राई की गई हरि मिर्च रखी होती है। सुबह के वक्त चावल पोहे वालों की सेवा मिल जाती है। इसका भी कोई पैसा नहीं वसूला जाता है।
गरीब तबके के अलावा यहां ऑटो रिक्सा और बैटरी रिक्सा वालों की भूख भी यही मिटती है। बहुत से मरीजों के अटेनेंटो ं के पास भोजन की व्यवस्था नहीे होने पर ये सुविधाएं राम बाण साबित हो जाती है। कई सारे गरीबोे ं न े फुटपाथोें को अपना स्थाई डेरा बना लिया है। पर सुविधाओें के साथ साथ कुछेक परेशानियां भी टसकती देखी जा सकती है। कहन े का अर्थ यह है कि गरीब मरीजों के अलावा इनकी आड़ मेें चौर - लंपटोंे के गैंग भी पल पोस रहे है दुष्ट मिजाज के इन तत्वों क ा नेटवर्क इस कदर चुस्त है कि पुलिस की चुस्ती भी मात खा जाती है।
अपराधियों के वर्क रों की टीम दिन के समय रेकी करकेे इस बात का पता लगा लेते हैं कि किस सख्स के पास कितनी नगद राशि है। साथ ही जेब में रखा मोबाइल भी इनकी स्क्रीन में आ जाता है। ओढने-बिछाने का सामान तक भी इनके दायरे में आ जाता है। फिर रात के समय इनका एक्सन शुरू हो जाता है। रोड़ के किनारे फुटपाथ पर सो रहे सख्स या मरीजों के अटेंनेंटों के बगल मेंे वे कोई पुरानी चद्दर बिछा कर लेट जाते हैं। देर रात जब फुटपाथी गहरी नींद में होते हैं तो उनके थ्ौलोंे में रखा सामान निकाल कर चम्पत हो जाते हैं। पीड़ितों को वारदात का पता सुबह जाकर होता है। चाय - पानी के लिए अपनी जेबें संभालने पर उनके माथ्ो से पसीना झलकने लगता है। चोरी और जब साफ करने की वरदातें इस कदर बढ चुकी है कि इनके आगे प्रशासन भी पानी भरने लगा है।
सवाई मानसिंह अस्पताल के गेट नम्बर दो से भीतर फुटपाथ पर बनी पत्थर की बैंच पर कुछ देहाती महिलाएं बैठी है। दोसा के भांडारेज की रहने वाली है। अस्पताल में परिवार का कोई मर्द बीमार है। ऑपरेशन होना है। इसकी डेट भी फिक्स हो चुकी है मगर देखोंं तो इनकी बदकिस्मत कोई उच्चा सामान से भरा थ्ौला उठा कर भाग लिया। ओढने- बिछाने के अलावा ईलाज के तमाम कागदाज। डॉक्टरों की पर्चियां भी थ्ौले मंे रखी हुई थी, वे भी लंपटोें के साथ ही चली गई। सब कुछ चला गया। ओटी से आवाज दो तीन बार पुकारी गई, मगर निकट ही बैठा मरीज रोता रह गया।
पुरानी आपात चिकित्सा इकाई के बाहर स्टूल पर बैठे एक सुरक्षा गार्ड तक यह मामला पहुंचा तो शिकायत मुख्य सुरक्षा गार्ड तक भी गई। मगर वहां भी उसे टरका दिया। टोंक सेआए एक देहाती पेसेंट का कहना था कि अस्पताल के सुरक्षा गाडोर्ं के पास एक ही टोटका रहता है। मारो-खाओ, कुछ भी करो मगर यहां शोर मचाने की इजाजत नहीं ह
ै। रहा सवाल सुरक्षा का तो उनके पास एक ही जवाब रहता है। आपके समान की हिफाजत आप को ही करनी होगी। ऐसे मामलोें से उनका कोई लेना देना नहीं है। मगर कई वाकिए यह भी सुनने को मिल जाते है कि मरीज और उनके साथ आए अटेनेंटों को कई बार बड़ी बेज्जती का सामन पड़ा।धक्का- मुक्की तक की नौबत आ गई। ताज्जुब की बात तो यह भी है कि यदि कोई पेसेंट कोई क्ववारी करना चाहता है तो उनका जवाब बड़ा ही शर्मनाक होता है।
धमकी दी जाती है कि यहां आकर पंगा लेने की कोशिश नहीं करना। एसएमएस की पुलिस को बुलाकर हवालात की हवा खिलादी जाएगी। गार्डो क ी गलत फहमी यह भी होती है कि उनके पास कानूनी अधिकार है।कोई भी सख्स उनके साथ उलझ जाए, या फिर मैडिकल स्टाफ भिड़ जाए तो उन्हें परेशान किया जाता है।दूसरी ओर पेसेंटों और अटेनेंटोे का उलाहना रहता है कि एसएमएस की व्यवस्था में मरीजों की सुरक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं है। ईलाज के दौरान लापरवाही के मामले आए दिन सामाने आते हैं, मगर उनकी सुनवाई अस्पताल प्रशासन के स्तर पर नहीं हो पा रही है मरीजोंे को बेमतलब ही जलील किया जाता है। गार्डो और अस्पताल केे आरोपी स्टाफ की शिकायत किसे की जाए। इस बारे कोई बताने - सुनने वाला नहीं है।