जयपुर। राजस्थान समेत पूरे देश में देवी अराधना का महापर्व नवरात्रि में श्रद्धा भाव और उल्लास से मनाया जा रहा है। इस पर्व में नौ दिनों तक देवी की अराधना की जाती है। वैसे तो 12 माह में चार बार नवरात्रि आती है। जिसमें दो आषाढ व माघ माह की नवरात्रि को नवरात्रि गुप्त होती है। वहीं चैत्र और अश्विन माह की नवरात्रि सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। पूरे देश में नवरात्रि की पूजा अलग- अलग मान्यता के अनुसार होती है। हर मंदिर में नवरात्रि पर घरों और मंदिरों मेंं घट स्थापना की गई है। इसी के साथ राजस्थान समेत देश में देवी के ऐसे मंदिर जहां हर साल की तरह इस बार भी यह महापर्व धूम- धाम से मनाया जा रहा है।
जयपुर में आमेर की शिला देवी के बारे में,जिनकी मान्यता राजस्थान समेत पूरे देश में है। जयपुर शहर से करीब दस किलोमीटर दूर आमेर महल प्रांगण में स्थित शिला देवी जयपुर वासियों की अराध्य देवी बन गई है। हर साल नवरात्रि पर मेला भरता है और देवी के दर्शन के लिए लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते है।
शिला देवी के मंदिर में अंदर जाने से सबसे पहले आकर्षण क ा केन्द्र यहां का मुख्य द्बार है। जो चांदी का बना हुआ है। इस पर नवदुर्गा श्ौलपुत्री, ब्रम्हचारिणी,चंद्र घंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, काल रात्रि एवं सिद्धिदात्र उत्कीर्ण है। दरवाजे के ऊपर लाल पत्थर की श्री गणेश जी की मूर्ति प्रतिष्ठित है। मंदिर के कलात्मक संगमरमर का कार्य महाराजा मानसिंह द्बितीय ने 19०6 में करवाया था। कई पुराने लोगोंे में मान्यता है कि शिला देवी जयपुर के कछवाह राजपूत राजाओं की कुलदेवी रही है। कहते हैं कि आमेर में पहले मीणाओं का राज हुआ करता था। साथ ही मीणाओं की कुल देवी हिंगला देवी की मूर्तिया भी स्थापित है।
शिला देवी मूलतया अम्बा माता का ही रूप है। एवं कहा जाता है कि आमेर या आंबेर का नाम इन्ही माता के नाम पर अम्बेर पड़ा था। जो कालांतर मेंं आम्बेर हो गया। माता की प्रतिमा एक शिला पर उत्कीर्ण होने के कारण इसे शिला देवी कहा जाता है।
मंदिर की खास विश्ोषता है कि प्रतिदिन भोग लगने के बाद ही मंदिर के पट खुलते हैं। साथ ही यहां विश्ोष रूप से गुंजियां व नारियल का प्रसाद चढाया जाता है। मंदिर के प्रवेश द्बार पर पुरातत्वीय ब्यौरा मिलता है। जिसके अनुसार शिला देवी की मूर्ति को राजा मानसिंह बंगाल से लाए थे । मुगल बादशाह अकबर ने उन्हें बंगाल का गर्वनर नियुक्त किया था। तब उन्हें वहां के तत्कालीन राजा केदार सिंह को हराने भेजा गया था। कहा जाता है कि केदार राजा को पराजित करने में असफल रहने पर मानसिंह ने युद्ध में अपनी विजय के लिए से आशीर्वाद मांगा था। इसके बदले में देवी ने स्वप्न में राजा केदार से अपने आप को मुक्त मुक्त क रने की मांग की। इस शर्त के अनुसार देवी ने मानसिंह को युद्ध जीतने में सहायता दी और मानसिंह ने देवी की प्रतिमा को राजा केदार से मुक्त करवाया। और उसे आमेर में स्थापित किया। कुछ लोगों का कहना था कि राजा केदार ने युद्ध हारने पर राजा मानसिंह को यह प्रतिमा भेट में दी थी। साथ ही यह भी मान्यता है कि माता की मूर्ति बंगाल के समुन्द्र तट पर राजा को मिली थी और काले रंग की थी। राजा मानसिंह ने आमेर में लाकर माता का विग्रह रूप शिल्पकारों से बनवा कर इसकी प्राण प्रतिष्ठा करवाई।
देवी को लेकर पौराणिक मान्यता ये भी है कि पहले माता की मूर्ति पूर्व की ओर मुख किए हुए थी। जयपुर शहर की स्थापना किए जाने पर इसके निर्माण में कार्यो में अनेक विद्धन उत्पन्न किए जाने लगे। तब राजा जयसिंह ने कई बड़े पंडितोें को बुला कर उसने सलाह- विमर्श करके मूर्ति को उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवा दिया। जिससे जयपूर के निर्माण में कोई अन्य विधÝ उपस्थित ना हो, क्योंकि मूर्ति की दृष्टि तिरछी पड़ रही थी। तब इस मूर्ति को वर्तमान गर्भगृह मेें प्रतिष्ठित करवाया, जो उत्तरमुखी है। यह मूर्ति काले पत्थर की बनी है। और एक शिलालेख पर बनी हुई है।
शिलामाता की यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी के रूप में बनी हुई है। सदैव वस्त्रों और लाल गुलाब के फूलों से ढंकी मूर्ति का केवल मुंह व हाथ ही दिखाई देता है। इसके पीछे यह माना जाता है कि शिला माता की प्रतिमा का चेहरा कुछ टेढा है। बताया जाता है कि मंदिर में कई सालों तक देवी को नर बलि दी जाती थी। राजा मानसिंह ने नर बली की जगह पशु बलि दी। जिससे माता रूढ गई। और गुस्से मं उन्होने अपनी गर्दन राजा मानसिंह की ओर से दूसरीओर मोड़ ली। तभी से प्रतिमा की गर्दन टेढी है।