जयपुर। प्राचीन भारत के अधिकांश भागों में कलाकार गैर-सांप्रदायिक समाज से संबंधित थे । वे अपनी सेवाएं किसी भी धर्म से संबंधित संरक्षक को देने के लिए तैयार थ्ो, चाहे फिर वह हिन्दू हो,बोद्ध हो या फिर जैन। उनके द्बारा उपयोग में की गई कई श्ौलियां किसी विशेष धर्म के बजाए समय और स्थान पर आधारित थी। इसलिए इस अवधि की जैन कला,शैलीगत रूप से हिन्दू या बोद्ध कला के समान है।
हालांकि इसके विषय और आइकनोग्राफी विशेष रूप से जैन है। कुछ मामूली बदलावों के साथ,भारतीय कला की पश्चिमी 16 वीं और 17 वीं शताब्दी में बनी रही। इस्लाम में वृद्धि ने जैन कला के पतन मंे योगदान दिया। हालांकि इस्लाम का उदय, जैन कला को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं कर पाया और यह आज भी हमें भारत के विभिन्न स्थानों में दिखाई देता है। लखनऊ संग्रहालय मेंं भी कई जैन मूर्तियां और कलाकृतियां संग्रहित की गई हैं। जिनमें 24 तीर्थंकरों के साथ ऋषभनाथ की मूर्ति और जिना पार्श्वनाथ अयागपता शामिल हैंे। जो लगभग 15वीं ईस्वी में मथुरा के पास पाए गए थे ।
भले ही जैन धर्म केवल भारत के कुछ हिस्सों में फैला हो,लेकिन इससे भारतीय कला और वास्तु कला में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैन कला के इतिहास की बात करें, तो प्रारंभिक जैन कला रूपों के ऐसे उदाहरण है, जिन्हें पहली, दूसरी और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व मेंं बनाया गया था। उदाहरण के लिए सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त विभिन्न मुहरों पर बनाई गई छवियां,जैन छवियों के समान नगÝ और मुद्रा के कारण जैन मानी जाती है। जो कि अब पटना संग्रहालय में मौजूद है। 23 वे तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ के कांस्य चित्र अब मुंबई के प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय और पटना के संग्रहालय में देख्ो जा सकते हैं। जो कि दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व हैं। बारीक और अलंकृत नक्काशीदार गुफाओं के साथ उदयगिरी और खंडगिरी गुफाएं,दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान बनाई गई थी। चिथराल जैन स्मारक भारत के दक्षिणी भाग में सबसे प्राचीन स्मारक है। जो पहली शताब्दी ईसा पूर्व का है। जैन कला के अन्य उदाहरण गुप्त वशं, पांचवी, और नौ वी शताब्दी से भी प्राप्त होते हैं। जिनमें तीर्थंकर महावीर की चंदन की मूर्ति, बादामी गुफा मंदिर, देवगढ का जैन मंदिर परिसर, एलोरा गुफाएं गोमतेश्वर की मूर्ति अयागता आदि शामिल हैं।
जैन कला की विभिन्न विशेषताओं को अनेकों रूप में देखा जा सकता है। जैसे जैन मंदिर, जैन गुफाएं, मूर्तिकला, अयागता, समवशरण,जैन प्रतीक आदि। आधुनिक और मध्यकालीन जैनों ने कई मंदिरों का निर्माण किया। विश्ोष रूप से पश्चिमी भारत में। सबसे पहले जैन स्मारक ब्राम्हणवादी हिंदू मंदिर योजनाओं और जैन भिक्षुओं मठों पर आधिारित मंदिर हैं। दिलवाड़ा मंदिर परिसर,जैन मंदिर का उत्कृष्ठ उदाहरण पेश करता है। जिसे 11 वीं और 13 वीं शताब्दी में राजस्थान में चालुक्य शासन के तहत निर्मित किया गया। दिलवाड़ा मंदिर परिसर में पांच सजावटी संगमरमर के मंदिर है, जिसमें से प्रत्येक एक अलग तीर्थंकर को समर्पित हैं। परिसर का सबसे बड़ा मंदिर, विमल वासाही मंदिर है जो कि तीर्थंकर ऋषभ को समर्पित है।
एक रंंग मंड 12 स्तंभों और लुभावनी केन्द्रीय गुंबद के साथ एक भव्य हॉल, नवचौकी आदि सबसे उल्लेखनीय विशेषताएं हैं। जिन पर बड़े पैमाने पर नक्कासी की गई हैं। मंदिर के अंदर, मरू- गुर्जर शैली में बेहद भव्य नक्कासी है। उदयगिरी और खंडगिरी की गुफाओं, जैन स्मारकों का अन्य महत्वपूर्ण उदाहरण है। जो कि उड़ीसा में भूवनेश्वर शहर के पास स्थित है। गुफाएं तीर्थकंरों, हाथियोंं महिलाओ को दर्शाते हुए शिलालेखों और मूर्तिकला में तीर्थंकरों की मूर्तियों को शामिल किया जाता है। तथा जैन मंदिर के अनुयायियों के द्बारा इन मूर्तियोंं की पूजा की जाती है। जैन आइकोनोग्राफी मेंं अक्सर उद्धारकर्ताओं नगÝ दिर्शाया गया है। जो कि ध्यान मुर्दाओं में यातो खड़े हैं या फिर बैठे हुए हैं।
जब तीर्थंकरों को बैठी अवस्था मेंं दर्शाया गया होता है तो वे पद्मासन मुद्रा में होते हैं। जबकि खड़ी अवस्था, कार्योत्सगã मुद्रा कहलाती है। उयागता भी जैन वास्तुकला का एक मुख्य रूप है जो कि जैन धर्म में पूजा से जुड़ी हुई एक प्रकार की तख्ती या टेबलेट है। कई बयागपता पहली शताब्दी की है। जो भारत में मथुरा के पास कंकाली टीला जैसे प्राचीन जैन स्थलोंं पर खुदाई के दौरान खोजे गए थे । इन्हें जैन पूजा के लिए विभिन्न वस्तुओं और डिजाइनों जैसे स्तूप, धर्मचक्र और त्रिर‘ आदि से सजाया गया था। समवसरण या तीर्थकर के दिव्य लोकप्रिय विषय हैं । जैन कला की मुख्य विशेषता यह है कि जैन कला विशिष्ठ विषयों और प्रतीकों पर आधारित है। इसके लोकप्रिय विषयों और प्रतीकों में तीर्थंकर, यक्ष और यक्षिणी कमल और स्वास्तिक जैसे पवित्र प्रतीक शामिल हैं।
संदर्भ- एचटीटीपीएस ईएन डब्ल्यू आईपीईडी ओआरआई डब्ल्यू आईके जैन आर्ट आदि