नई दिल्ली। एनसीआर के एक अस्पताल में तीन साल की बच्ची का सफल एबीओ किडनी प्रतिरोपण किया गया है जिसे उसकी मां ने किडनी दान की और कठिन सर्जरी के करीब ढाई महीने के बाद बच्ची पूरी तरह स्वस्थ है।
गुडग़ांव स्थित मेदांता मेडिसिटी के डॉक्टरों की टीम ने गत पांच अप्रैल को बच्ची की सर्जरी की और उनका दावा है कि इतने छोटे बच्चे में एबीओ यानी ब्लड ग्रुप मैच नहीं होने वाला किडनी प्रतिरोपण का दक्षेस देशों का यह पहला मामला है।
मेदांता के पेडिएट्िरक नेफ्रोलॉजी और पेडिएट्िरक रीनल ट्रांसप्लांट के कंसल्टेंट डॉ सिद्धार्थ सेठी ने बुधवार को यहां संवाददाताओं को बताया कि तीन साल के बच्चे में ब्लड ग्रुप असंगत होने की स्थिति में किडनी प्रतिरोपण का यह दक्षेस सार्क देशों का पहला मामला है जिसे मेदांता मेडिसिटी की टीम ने सफलतापूर्वक पूरा किया।
ओडि़शा के कोंपाड़ा के रहने वाले संग्राम मलिक और दीपाली मलिक की नन्हीं बेटी प्रत्याशा की किडनी ने तीन साल की उम्र में ही काम करना बंद कर दिया। बच्ची जन्म से ही रिफ्ल्क्स नेफ्रोपैथी यानी मूत्र के शरीर से बाहर निकलने के बजाय गुर्दे में वापस चले जाने की गंभीर समस्या से पीडि़ति थी।
डॉ. सेठी के अनुसार, बच्ची को तत्काल किडनी प्रतिरोपण की जरूरत थी लेकिन उसके रक्त समूह वाला कोई डोनर नहीं मिल रहा था। दान किए गए कैडेवर शवों की सूची में भी इस रक्त समूह को मैच करने वाले शव की खोज की गई लेकिन सफलता नहीं मिली। छह महीने तक ब्लड ग्रुप मैच करने वाले डोनर की खोज में सफल नहीं होने के बाद मेदांता के गुर्दा एवं मूत्रविज्ञान संस्थान ने बच्ची की मां को अंगदाता के रूप में लेने की योजना बनाई जो एक एबीओ प्रतिरोपण था। बच्ची का ब्लड ग्रुप बी पॉजिटिव और मां का ब्लड ग्रुप ए पॉजिटिव है।
एबीओ असंगत मामलों में खून के प्लाज्मा में से एंटीबॉडी निकाले जाते हैं।
डॅा. सेठी ने बताया कि एबीओ प्रतिरोपण में सबसे बड़ा जोखिम हाइपर एक्यूट रिजेक्शन यानी प्रतिरोपण के दिन ही किडनी के काम बंद करने का होता है।
हालांकि, उन्होंने बताया कि प्रतिरोपण के बाद बच्ची के विकास में रूप से सुधार हुआ। उसकी किडनी अच्छी तरह काम कर रही है। बच्ची इस समय पूरी तरह सामान्य है और भविष्य में उसे उसी तरह के जोखिम हो सकते हैं जो किसी सामान्य वयस्क किडनी प्रतिरोपण में होते हैं।
मेदांता के किडनी इंस्टीट्यूट के एसोसिएट निदेशक डॉ. श्याम बंसल के मुताबिक, जापान जैसे देशों में 10-12 साल से एबीओ हो रहा है लेकिन अगर हमारे देश में कैडेवर यानी शवदान को लेकर जागरूकता हो तो जरूरतमंद रोगियों के लिए किडनी, लिवर जैसे महत्वपूर्ण अंग आसानी से मिल सकते हैं।
उन्होंने इस तरह के किडनी प्रतिरोपण के मामलों का जिक्र करते हुए कहा कि अगर शुरुआत में किडनी रिजेक्शन नहीं करती यानी काम करना बंद नहीं करती और धीरे धीरे दो तीन सप्ताह का समय निकल जाता है तो जोखिम धीरे धीरे कम हो जाता है। लेकिन ऐसे रोगियों में बाद में किसी भी उम्र में किडनी रिजेक्शन हो सकता है और इसका प्रमुख कारण नियमित ली जाने वाली दवाओं में छेड़छाड़ भी हो सकता है।
सर्जरी करने वाली टीम में शामिल रहे वरिष्ठ सर्जन डॉ. प्रसून घोष ने कहा कि किडनी प्रतिरोपण की सर्जरी में चिकित्सकों के सामने एक ही अवसर होता है और वही पहला अवसर आखिरी भी होता है। इसलिए इस तरह की सर्जरी पूरी तैयारी और गंभीरता के साथ की जाती हैं।
उन्होंने बताया कि तीन साल की बच्ची की रक्त नलिकाएं इतनी छोटी और पतली होती हैं कि उसमें वयस्क के गुर्दे को लगाना और रक्त नलिकाओं को जोडऩा बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम था।