नई दिल्ली। हिन्दी, तमिल और संस्कृत के विद्वान डॉ. पी. जयरामन का कहना है कि समाज इस समय अंग्रेजी का बोलबाला है और उसे ही महिमामंडित किया जा रहा है लेकिन यदि हम चाहते हैं कि सामाजिक ,राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को स्वीकार किया जाये तो लोगों में इसके प्रति भावनात्मक संवेदना लाना बेहद जरूरी है।
जयरामन ने ‘पीटीआई...भाषा’ के साथ खास मुलाकात में कहा कि समाज के लोगों ने अंग्रेजी को महिमामंडित किया है। इसके पीछे सामाजिक संदर्भ से अधिक महत्वपूर्ण यह था कि यह नौकरी की भाषा बन गयी। समस्त कार्यों के लिए अंग्रेजी अनिवार्य बन गई और इसके बिना कार्य नहीं हो सकता।
इस मानसिक स्थिति में लोग ही परिवर्तन लायेंगे।दक्षिण के आलवार और आण्डाल संतों के 4000 पदों का डॉ. पी जयरामन द्वारा हिन्दी में अनूदित और संपादित प्रकाशन ‘संतवाणी’ के रूप में 11 खंडों में किया गया है। इस अक्षय निधि को वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।
हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए भारतीय रिजर्व बैंक के प्रबंध तंत्र में 16 साल तक काम करने वाले जयरामन ने कहा कि कार्यालयीन संदर्भ में सरकार की भाषा नीति में कानून के आधार पर अंग्रेजी को स्थान दिया गया था। मगर वर्तमान वक्त में विश्व पटल पर अंग्रेजी के बिना कुछ नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा कि उपयोग के लिए चुनी गई भाषा आहिस्ता आहिस्ता प्रमुख भाषा बन गई।
ऐसे में हिन्दी के प्रति भावनात्मक संवेदना बेहद जरूरी है और मानसिक स्थिति में परिवर्तन लाए बिना कुछ भी नहीं हो सकता। 1980 में न्यूयार्क में भारतीय विद्या भवन स्थापित करने वाले विद्वान ने कहा कि देश में मैकाले द्वारा बनाई गई शिक्षा पद्धति अभी भी चल रही है और इसके लिए हम भारतीय भी कम दोषी नहीं हैं। जयरामन ने कहा कि देश की एक भाषा होनी चाहिए, जो सारे समाज को स्वीकार हो।
इस पर अमल होना चाहिए और इसके लिए एक सामाजिक आंदोलन की जरूरत है। देश को एक सूत्र में जोडऩे वाली भाषा के रूप में हिन्दी का स्थान कोई नहीं ले सकता है। भारतीय संस्कृति, दर्शन, भाषा, साहित्य और कलाओं के प्रचार प्रसार मेंं संलग्न विद्वान ने कहा कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में उपलब्ध सामग्री का अधिक से अधिक अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए। इससे लोगों का मानसिक स्तर बेहतर होगा।
उन्होंने कहा कि इसके लिए तीन बातें बेहद जरूरी है कि हम अपनी भाषा की प्रतिष्ठा की स्थापना करें। अपने देश की वस्तुओं को स्वीकार करना सीखें।...और सबसे अहम यह है कि हिन्दी बनाम अंग्रेजी की बहस को छोड़ दें। भारतीय संस्कृति और साहित्य के एकात्मता के लिए निरंतर कार्यरत जयरामन ने कहा कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में भारतीय भाषाओं का महत्व और भागीदारी बेहद कम होती है....आाखिर क्यों?
इसका उत्तर हमेें तलाशना होगा। सागर विश्वविद्यालय से सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुब्रह्मण्यम भारती के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विद्वान ने कहा कि हिन्दी जानने वाले लोगों को आपसी प्रतिद्वंद्विता को दरकिनार करना होगा और हिन्दी को विश्व पटल पर स्थापित करने के लिए प्रयास करना होगा।
उन्होंने कहा कि दुनिया मेंं जहां भी हिन्दी सिखाई जाती है ,वहां उसे बड़ी आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है। यह इस बात का द्योतक है कि हिन्दी को विश्व में मान्यता दिलाना अधिक कठिन कार्य नहीं है। मगर इससे पहले हमें अपने देश में इस भाषा को वह सम्मान देना होगा जिसकी वह हकदार है।