बीमार कंपनी जैसी कांग्रेस

Samachar Jagat | Friday, 04 Nov 2016 05:34:53 PM
Congress, including the ailing company

पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी के लिए आसानी से जगह खाली नहीं करती। बात परिवार की हो तो भी। नब्बे साल की उम्र में एम करुणानिधि कह रहे हैं कि अभी वह अपने पुत्र को पार्टी की बागडोर नहीं सौपेंगे। पंजाब में प्रकाश भसह बादल के इशारे का सुखबीर बादल दस साल से इंतजार कर रहे हैं। मुलायम भसह यादव ने दरियादिली दिखाई तो आज पछता भले न रहे हों, पर हालात से बहुत प्रसन्न तो नहीं ही हैं।

 देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस यथास्थिति से बाहर निकलने को तैयार नहीं है। पार्टी बढऩे के बजाय दिनोंदिन घट रही है। सोनिया गांधी बेटे राहुल के लिए अध्यक्ष पद छोडऩे को आतुर हैं, पर राहुल तैयार नहीं हैं। क्यों तैयार नहीं हैं, इस सवाल का जवाब कोई नहीं जानता। अब इस विषय पर चर्चा में कांग्रेसियों की भी रुचि नहीं रह गई है। नतीजा यह है कि सोनिया गांधी का अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल बढ़ाने के लिए एक बार फिर पार्टी संविधान में संशोधन की तैयारी है। तदर्थवाद कांग्रेस का स्थायी भाव बन गया है।

 राहुल गांधी सुबह-शाम प्रधानमंत्री से पूछते हैं कि ढाई साल के शासन में क्या किया? कांग्रेसी पूछ रहे हैं कि ढाई साल में पार्टी में राहुल ने क्या किया? उत्तर प्रदेश के कांग्रेसियों में आजकल राहुल गांधी की किसान यात्रा और खाट सभा की बजाय अखिलेश यादव की राजनीति की चर्चा हो रही है। सूबे के कांग्रेसी ‘हाय हुसैन हम न हुए’ की तर्ज पर कह रहे हैं कि काश राहुल गांधी भी ऐसा कर पाते। अखिलेश ने पिता और चाचा के खिलाफ जिस तरह के तेवर दिखाए हैं उससे सपाई खुश हों न हों, कांग्रेसी परम प्रसन्न हैं। 

इससे पहले कांग्रेसियों में चर्चा इस बात पर थी कि किसान यात्रा के समापन पर ‘खून की दलाली’ वाला बयान देकर राहुल ने ठीक किया या गलत? अब चर्चा का केंद्र अखिलेश बन गए हैं। अखिलेश में सूबे के कांग्रेसियों को अपना तारणहार (खासतौर से विधायकों को) दिख रहा है। इसलिए पार्टी का एक बड़ा वर्ग विधानसभा चुनाव में सपा से गठबंधन के पक्ष में खड़ा हो गया है। 

सो पार्टी की एकला चलो की नीति कितने दिन टिकेगी, कहना कठिन है। कांग्रेस पार्टी के संगठन की हालत किसी बीमार कंपनी जैसी हो गई है। पिछले साल कांग्रेस कार्यसमिति ने सोनिया गांधी का कार्यकाल एक और साल के लिए बढ़ा दिया था। कांग्रेस संगठन की हालत का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि जिस कार्यसमिति ने सोनिया गांधी का अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल बढ़ाया उसका कार्यकाल पहले ही खत्म हो चुका है। पाक अधिकृत कश्मीर में भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी कार्यसमिति की कोई बैठक नहीं हुई। 

वही कार्यसमिति सात नवंबर को बैठ रही है। इसमें सोनिया गांधी का कार्यकाल अब एक बार फिर बढ़ाने की तैयारी है। पार्टी संगठन के चुनाव लगातार टलते जा रहे हैं। वजहें दो हैं। सोनिया गांधी फिर से पूर्णकालिक (पांच साल के लिए) अध्यक्ष चुने जाने की इच्छुक नहीं हैं और राहुल गांधी जिम्मेदारी संभालने के लिए राजी नहीं। हालांकि पिछले एक-डेढ़ साल से पार्टी में फैसले वही ले रहे हैं। 

अध्यक्ष का पद संभाले बिना राहुल अध्यक्ष के अधिकारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस पर पार्टी में किसी को कोई एतराज नहीं है, लेकिन अनिश्चितता पूरे संगठन को घुन की तरह खाए जा रही है। 
पिछले ढाई सालों में कांग्रेस में एक नई बात हो रही है। कांग्रेस नेताओं का पार्टी छोडक़र जाने का सिलसिला रुक नहीं रहा है। 

राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है। नेता समय-समय पर पार्टियां बदलते रहते हैं, लेकिन कांग्रेस में नई बात यह हो रही है कि पार्टी छोडक़र जाने वाले नेता राहुल गांधी की आलोचना कर रहे हैं और सोनिया गांधी की प्रशंसा। हिमंत विश्वशर्मा से शुरु हुआ सिलसिला रीता बहुगुणा जोशी तक जारी है। इस बात को यह कहकर टालना ठीक नहीं होगा कि पार्टी छोडऩे वालों की बात पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है। 

सवाल है कि जिन्हें सोनिया गांधी ठीक और अच्छी लगती हैं उन्हें राहुल गांधी बुरे क्यों लगते हैं? इससे एक और बात स्पष्ट होती है कि पार्टी छोडऩे वालों ने मान लिया है कि कांग्रेस में अब राहुल गांधी की ही मर्जी चलेगी। सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष भले ही हों पर पार्टी के काम काज से उन्होंने अपने को अलग कर लिया है। इसलिए जिसे राहुल गांधी के काम काज का तरीका पंसद नहीं है उसे अपने लिए रास्ता तलाश लेना चाहिए। 

जो कांग्रेस से बाहर आशियाना तलाश रहे हैं उनके सामने तो कई विकल्प हैं, लेकिन आखिर कांग्रेसी क्या करें। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को फिर से खड़ा करने की बात हो रही थी। राहुल की किसान यात्रा चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर का मास्टर स्ट्रोक मानी जा रही थी, लेकिन यात्रा के अंत में राहुल के एक बयान ने यात्रा की चर्चा ही खत्म कर दी। उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी जानना चाहते हैं कि आखिरकार राहुल गांधी का सलाहकार कौन है? कांग्रेस तो भूल गई है पर आपको शायद याद हो कि कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद का एक उम्मीदवार भी घोषित किया था जिनका नाम शीला दीक्षित है।

 प्रशांत किशोर ने प्रदेश में ब्राह्मणों को कांग्रेस से जोडऩे के लिए यह रणनीति बनाई थी। सारी रणनीति लेकर रीता बहुगुणा जोशी भाजपा में चली गईं। तब से प्रशांत किशोर खटिया पर पड़े हैं। अब कांग्रेस में कोई ब्राह्मणों की बात नहीं कर रहा, प्रशांत भी नहीं। राहुल गांधी और प्रशांत किशोर दोनों के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अभी नहीं तो कभी नहीं का मामला बन गया है। 

प्रशांत किशोर की चुनावी चाणक्य की स्वनिर्मित छवि दांव पर लगी है। राहुल गांधी ने किसान यात्रा में वास्तव में इस बार खासी मेहनत की पर उनका पसीना पानी होता दिख रहा है। इसलिए दोनों ही एकला चलो की नीति भूल गए, शीला दीक्षित को भूल गए और ब्राह्मणों को भी। अब कांग्रेस मुलायम भसह यादव के दरवाजे पर खड़ी है। 

मुलायम परिवार के झगड़े में उसे अपने लिए अंतिम अवसर नजर आ रहा है। पार्टी का एक धड़ा अखिलेश के साथ जाना चाहता है तो दूसरा जो ज्यादा सीट दे उसके साथ। कांग्रेस अब मुलायम और अखिलेश का हाथ थामना चाहती है। बीते दिवस प्रशांत किशोर मुलायम भसह यादव के दरवाजे पर थे।

 समाजवादी पार्टी अंदरूनी कलह से जहां पहुंच गई है वहां उसे मुस्लिम वोट के बहुजन समाज पार्टी की ओर खिसकने से रोकने के लिए कांग्रेस की जरूरत है। सपा, कांग्रेस व अजित भसह के राष्ट्रीय लोकदल में गठबंधन होता है तो यूपी विधानसभा चुनाव फिर से त्रिकोणीय हो जाएगा। उसके बिना तो लड़ाई बसपा और भाजपा में नजर आती है। जिसमें बसपा का पलड़ा फिलहाल भारी दिखता है। कांग्रेस की समस्या यह है कि अभी सपा में ही फैसला नहीं हुआ है कि चुनाव तक वह एक रहेगी या नहीं। सपा का यह रुका हुआ फैसला कांग्रेस को एक नई अनिश्चितता के दौर में ले जाएगा।



 

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