भारतीय बैंकिंग व्यवस्था और महा डिफाल्टर्स

Samachar Jagat | Thursday, 03 Nov 2016 04:34:51 PM
Indian banking system and the general Difaltrs

यह समाचार चौंकाने वाला है कि बैंकों के पिच्यासी हजार करोड़ रुपये केवल 57 लोगों के बकाया है जो लम्बे समय से चुकाने न जाने के बाद भी बैंके इनके नाम सार्वजनिक इस आधार पर नहीं कर रही हैं कि इससे इनकी ‘इज्जत’ पर बट्टा लगेगा तथा आर्थिक प्रभाव नकारात्मक पड़ेगा। पिछले दिनों यह समाचार भी सुर्खियों में था कि सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों का एनपीए 9.20 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है।

 जिसकी भी सार्वजनिक सूचना ऐसे ही तर्कों के आधार देने से बचता रहा जा रहा है। एक बार के लिये इस बात के सैद्धांतिक पक्ष को छोड़ भी दिया जाये तो भी स्थिति आर्थिक आधार पर भी भयावह है। जिसकी वस्तुनिष्ठ एवं व्यापक चर्चा किया जाना जरूरी है क्योंकि जीडीपी के माध्यम से भारतीय अर्थव्यवस्था की जो ऊँची तस्वीर बनाई जा रही है यथार्थ में बिल्कुल विपरीत दिखाई दे रहा है।

एनपीए का मतलब होता है तीन माह से ऋणी द्वारा मूल धन एवं ब्याज की कोई किश्त नहीं चुकाई हो। जिसे पहले बट्टा खाता रकम कहते थे। अब इसका सम्भ्रांत नाम जो लोगों को वास्तविक स्थिति से भ्रमित रखता है एनपीए याने ऐसी सम्पत्ति जो कोई रिटर्न नहीं दे रही है। ऐसी सम्पत्ति कालान्तर में स्वत: बट्टेखाते लिखने लायक हो जाती है यदि इसी समयावधि में उसके प्राप्त करने की सख्त कार्रवाई नहीं की जा जाती है। जिस दिवस को ऐसे आंकडे जारी किये गये उसके बाद तो कई तीन माह हो गये। 

ऐसे में एनपीए का वास्तविक आंकड़ा 15 लाख करोड़ रुपये के करीब हो जाता है। यह रकम लाखों-करोड़ों लोगों की जमाओं से बनती है। जिसको अन्तत: कुछ सैकड़ा लोग हड़प जाने की जुगत बैठा लेते हैं। इसको जानने के लिये ऋण देने एवं लेने की सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझना जरूरी है। ऐसा ऋण स्वाभाविक रूप से कम्पनी/कारपोरेशन्स को दिया जाता है। जिनकी लाइबिलेटी लिमिटेड होती है। 

स्पष्ट है जो निदेशक ऋण लेने के समझौते पर हस्ताक्षर करते हैं उनकी व्यक्तिगत रूप से कोई जिम्मेदारी कानूनी तौर पर भी नहीं होती है। ऋणदाता बस कम्पनी की सम्पत्ति के मूल्य की सीमा तक ही वसूली कर सकता है। इसमें भी पेच यह होता है कि प्रथमत: तो ऋण लेने के लिये जो सम्पत्तियां प्रदर्शित की जाती है वे वास्तविकता से बहुत अधिक मूल्य की दिखाई जाती है। यह सारा खेल कानूनी रूप से अधिकृत सी.ए. करता है तथा जिसे बैंक अधिकारी सब कुछ जानते हुये भी एक डीज के तहत ‘प्रतिफलार्थ’ स्वीकार अपने ‘हाथ पांव बचाते’ हुये कर लेते हैं।

 इस लिये सम्पत्तियों के बेचान से भी वास्तविक रकम का छोटा हिस्सा ही मिल पाता है। साथ ही ऐसी सम्पत्तियों के विवादास्पद होने की आम अवधारणा के कारण बाजार में क्रेता बहुत कम एवं कम मूल्य पर ही मिल पाते हैं। साथ ही कानूनी पेचिदिगियों के कारण बैंकों को इस स्थिति तक पहुंचने के लिये बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं तथा समय असामान्य रूप से अधिक लगता है।

वैसे भी बैंक अधिकारी डिफाल्टर्स के नाम तक सार्वजनिक नहीं करने की ठाने रहते हैं वे इनके विरुद्ध कोर्ट में कैसी पैरवी करवाते होंगे आसानी से समझा जा सकता है। ऐसे मामले सामान्यत: सिविल होते हैं जहां जमानत मिलना और मामले के लम्बे चलना बड़ा आसान है।

ऐसे मामलों की एक चालान प्रक्रिया को भी समझ लेना बहुत जरूरी है। जिसके तहत ऋण लेने वाली कम्पनी ऋण लेने के बाद से ही चुकाने की जुगत में लग जाती है। पहले तो वह किश्त चुकाने के माफी काल को पूरा उपयोग करते हैं, एक-दो किस्त चुकाने के बाद बंद कर देते हैं। तब बैंक ‘दबाव’ डालती है तो ऋणी कम्पनी पूर्व योजनानुसार ऋण के पुनर्निधारण की मांग करती है। जिसे मान ही लिया जाता है। अब पुनर्निधारण के समय सम्पत्तियों का फिर मूल्यांकन किया जाता है। स्वाभाविक रूप से इस समय सम्पत्तियों का फिर मूल्यांकन किया जाता है। स्वाभाविक रूप से इस समय सम्पत्तियों का मूल्य बढ़ा होता है। 

अब इस मूल्य के आधार पर कम्पनी की ऋण लेने की क्षमता निर्धारित कर पूर्व ऋण से ज्यादा रकम दे दी जाती है। साथ ही किस्तों को बढ़ा दिया जाता है तथा ब्याज दर भी कम और ऋण की किस्तें नहीं देने की समयावधि भी बढ़वा ली जाती है। इस प्रकार ऋणी बिना पूर्व ऋण राशि चुकाये ही सभी लाभ तो ले ही लेता है बल्कि और अधिक ऋण भी प्राप्त करने में सफल हो जाता है। चालाक लोग इस प्रक्रिया को निरन्तर अपने सम्पर्कों और ‘प्रबंधकीय क्षमता’ से समय-समय पर आगे बढ़वाते रहते हैं।

जब सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती है तो वे कुछ भी चुकाने में कम्पनी के घाटे, मंदी, प्रोजेक्ट्स के समय पर पूरा नहीं होने, सरकारी विभागों की लेटलतीफी, वैश्विक व्यापारिक गिरावट, मांग में कमी आदि कारण बता कर ऋण चुकाना बिल्कुल बन्द कर दिया जाता है। अब सारी बात कानूनी प्रक्रिया में फंस जाती है। जहां बैंक अधिकारी सामान्यत: ‘मैनेज्ड’ कर लिये जाते हैं तथा ऊंचे सम्पर्की वकीलों के माध्यम से ‘माल्या’ होने का रास्ता निकाल ही लिया जाता है। अब कानूनी लड़ाई में ही समय निकलता रहता है। 

सब कुछ ट्राई कर लिया जाता है तो कम्पनी बात ‘होगा सो देखा जायेगा’ की मुद्रा में आ जाती है और बैंकों की मुसीबत बढ़ती जाती है। क्योंकि सरकारें, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया तेजी से सार्थक या तो करते नहीं है या हो नहीं पाता है।
एनपीए का एक पक्ष यह भी है कि जब हर बैंक में सुरक्षा, तरलता, लाभदायकता के मूल्य सिद्धांतों की पालना जरूरी है तो इसके लिये बैंक अधिकारियों को सीधे रूप में व्यक्तिश: दायी क्यों नहीं बनाया जाता है। 

क्योंकि हर ऋण देने से पहले उसकी सुरक्षा की व्यवस्था एवं प्रावधान करना बैंक अधिकारियों की जिम्मेदारी होती है तो इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी वे बचे कैसे रहते हैं? जब छोटे ऋणों की वसूली प्राय: पूरी कर ली जाती है, उनकी वसूली के लिये कान्ट्रेक्ट पर लोग रखे जाते हैं, ऋणी के दरवाजे पर कभी भी दस्तक दी जाती है, ढोल तक बजाये जाते हैं, अमानवीय व्यवहार किया जाता है, सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस सरेआम पहुंचाई जाती है, कोर्टों का भरपूर उपयोग किया जाता, माइक्रो फाईनेंस वाले तो घर के बरतन तक उठा कर ले जाते हैं तो फिर महा डिफाल्टर्स को हर तरह से संरक्षित बल्कि पोषित क्यों किया जाता है? 

उनके नाम तक सार्वजनिक करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय तक को हस्तक्षेप करना पड़े, सरकार वसूली प्रक्रिया को तेज एवं कठोर करने के स्थान पर राज्य कोष से बैंकों को पूंजी उपलब्ध करवाये, महा घोटालेबाजी को देश छोड़ कर भागने दे, न्यायिक प्रक्रिया में आलस दिखाये, बैंकों को समझौता करने के लिये मजबूर करे, बार-बार रियायतों की घोषणा करें, आर्थिक विकास को गति देने के नाम पर ब्याज दरों में कमी करती रहे, ऋण पुनर्निधारण के नाम पर सब कुछ फाउल होने दें तो परिस्थितियों में सुधार कैसे आ सकता है? अब तो रास्ते निकालने के स्थान पर सख्त व सीधा निर्णय लेने की जरूरत है जिससे समस्या को विकराल होने से बचाया जा सकें।



 

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