'आजादी की जंग में राजस्थान का इतिहास', स्वाधीनता आंदोलन को मिली थी नई दिशा

Samachar Jagat | Monday, 15 Aug 2016 04:34:51 PM
history of rajasthan in the war of independence

जयपुर। राजस्थान में दासता से मुक्ति के प्रयास अहिंसक असहयोग आंदोलन की शुरुआत बिजोलिया के किसान आंदोलन से हुई थी। उस समय राजस्थान की जनता पर अंग्रेजों की हुकूमत की बेडियां तो थी हीं साथ ही उन्हें यहां के शासकों एवं जागीरदारों के दमन का भी सामना करना पडा।

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार राजस्थान के शासकों ने उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में अंग्रेजों से संधि कर ली थी जिससे उन्हें बाहरी आक्रमणों एवं मराठों के आतंक से मुक्ति मिल गई थी। निर्भय हो जाने के कारण इन राजाओं ने आम जनता पर नए-नए करों का बोझ डालना प्रारम्भ कर दिया। इससे जनता में असंतोष बढ़ता गया और पहला विस्फोट हुआ।

विभिन्न लगानों के विरूद्ध बिजोलिया के किसानों ने छोटे आंदोलन किए। वर्ष 1916 में राजस्थान के महान सपूत विजय सिंह पथिक ने आंदोलन की बागडोर संभाली और असहयोग आंदोलन प्रांरभ किया। उनके आह्वान पर जनता ने लगान तथा अन्य प्रकार के कर देना बंद कर दिया। इसके कारण बडी संख्या में किसान दमन के शिकार हुए और जेल गए। असहयोग आन्दोलन से जुड़े काफी बडे नेता या तो निर्वासित किए गए या जेल भेजे गए। यह आंदोलन 1941 में किसानों की जीत के साथ समाप्त हुआ।

तथ्यों के अनुसार बिजोलिया के किसान आंदोलन का प्रभाव मेवाड़ तथा आसपास की रियासतों पर पडा। बेगूं के किसानों ने भी लगान के विरुद्ध एक संगठित आंदोलन शुरू किया। इसके लिए सरकार ने बल प्रयोग किया जिसमें रूपाजी और करमाजी नामक दो किसान शहीद हुए। बूंदी, सिरोही, अलवर, भोमठ, सीकर और दुधवारिया में भी किसान आंदोलन हुए जिसमें अन्तत: विजय किसानों की हुई। भोमठ और सिरोही के भील बहुल क्षेत्र में किसानों पर की गई गोलीबारी में कई किसान मारे गए। इस आंदोलन का नेतृत्व मेवाड के गांधी के नाम से प्रसिद्ध मोती लाल तेजावत ने किया था।

हालांकि राजस्थान के कई राजाओं ने 1857 की क्रान्ति में अंग्रेजों की मदद की थी लेकिन कु क्षेत्रों में बगावत भी हुई। 21 अगस्त 1857 में जोधपुर राज्य में स्थित एरिनपुरा छावनी में ब्रिटिश फौज के कु भारतीयों ने बगावत कर दिल्ली की ओर कूच किया। रास्ते में वे बागी सैनिक आउवा पर ठहरे जहां के ठाकुर कुशलसिंह चापावत उनके नेता बने। आसपास के अन्य ठाकुर भी अपनी सेना लेकर उनके साथ हो गए।

इतिहास के पन्नों के अनुसार हालांकि जयपुर में प्रजा मण्डल की स्थापना 1931 में हो गई थी, लेकिन इसकी गतिविधिया सेठ जमना लाल बजाज के नेतृत्व सम्भालने के बाद शुरू हो पाई। सरकार ने सेठ जमना लाल बजाज के जयपुर प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया, लेकिन उन्होंने इन आदेशों की अवहेलना कर फरवरी 1939 में जयपुर में प्रवेश किया जिस पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और इसके साथ ही राज्य में सत्याग्रह शुरू हुआ। यह सत्याग्रह 18 मार्च, 1939 तक चला और करीब पांच महीने के बाद एक समझौते के बाद जमना लाल बजाज व उनके साथियों को रिहा कर दिया।

कोटा प्रजा मण्डल की स्थापना 1936 में की गई। इस संस्था द्वारा साक्षरता, दवाईयों की आपूर्ति, सिंचाई के लिए जल की आपूर्ति आदि कु अन्य प्रस्ताव भी पारित किए गए। कोटा प्रजा मण्डल ने उत्तरदायी शासन के लिए हड़ताल व सत्याग्रह भी किए। अलवर एवं भरतपुर में 1938 में प्रजा मण्डलों की स्थापना की गई। बीकानेर में 1936 और 1942 में प्रजामण्डलों की स्थापना के प्रयास किए गए लेकिन वे राज्य की नीतियों के कारण असफल हो गए।

जैसलमेर में महारावल की दमनकारी नीतियों के कारण वहां तो कोई संगठन बनाना अत्यन्त कठिन कार्य था। सागर मल गोपा ने अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए आवाज उठाई। जब 1939 में प्रजा मण्डल की स्थापना हुई तो उस पर पाबन्दी लगाई गई। 1941 में सागर मल गोपा को गिरफ्तार किया गया। जेल में तीन अप्रैल, 1946 को उनकी मृत्यु हो गई।

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार अजमेर के चीफ कमिश्नर सर पैट्रिक लारेन्स ने जोधपुर के महाराजा से सेना भेजने की प्रार्थना की। उन्होंने जो सेना भेजी वह बागी सैनिकों से हार गई। उसके बाद सर पैट्रिक लारेन्स और जोधपुर का राजनीतिक एजेंट मेसन सशैत्यब आउवा पहुंचे। दोनों सेनाओं में युद्घ हुआ जिसमें अंग्रेजी सेना हार गई। गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को जब पता चला तो उन्होंने जनवरी 1858 को पालनपुर और नसीराबाद से सेना आउवा भेजी। क्रांतिकारी इस सेना का सामना नहीं कर पाए और उन्हें जानमाल की भारी क्षति हुई। इस प्रकार कोटा एवं अजमेर-मेरवाडा की नसीराबाद स्थित सेना के सैनिकों ने भी मेरठ में सैनिक विद्रोह के समाचार सुनकर विद्रोह कर दिया।

राजस्थान में सशस्त्र क्रान्ति का प्रारम्भ शाहपुरा के सरी सिंह बारहठ ने किया। उन्होंने अर्जुनलाल सेठी एवं खरवा राव गोपालसिंह के साथ एक क्रान्तिकारी संगठन अभिनव भारत समिति की स्थापना की। उन्होंने एक विद्यालय भी खोला जहां युवकों को प्रशिक्षण दिया जाता था। इनमें से कु युवकों को प्रशिक्षण के लिए रास बिहारी बोस के साथी मास्टर अमीचन्द के पास दिल्ली भेजा जाता था। 

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार राज्यों के प्रति कांग्रेस की नीति महात्मा गांधी ने 1920 में बनाई गई। 1938 में हरिपुरा कांग्रेस ने राज्यों को भारत का अभिन्न अंग मानते हुए इन राज्यों में अपने-अपने संगठन स्थापित करने तथा स्वतंत्रता आंदोलन चलाने का प्रस्ताव पारित किया। इसके बाद प्रजा मण्डलों की स्थापना हुई। अपैल 1938 में माणिक्यलाल वर्मा ने अपने कु साथियों के सहयोग से उदयपुर के मेवाड प्रजा मण्डल की स्थापना बलवन्त सिंह मेहता की अध्यक्षता में की। संस्था को प्रारम्भ से ही गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। सरकार ने प्रजा मण्डल पर जो पाबन्दी लगाई हुई थी उसको हटाने की मांग करते हुए चार अक्टूबर, 1938 को सत्याग्रह आंदोलन करने पर मेवाड सरकार ने सितम्बर 1941 में प्रजा मण्डल पर से पाबन्दी हटा दी। 

इतिहास के पन्नों के अनुसार हालांकि जयपुर में प्रजा मण्डल की स्थापना 1931 में हो गई थी, लेकिन इसकी गतिविधिया सेठ जमना लाल बजाज के नेतृत्व सम्भालने के बाद शुरू हो पाई। सरकार ने सेठ जमना लाल बजाज के जयपुर प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया, लेकिन उन्होंने इन आदेशों की अवहेलना कर फरवरी 1939 में जयपुर में प्रवेश किया जिस पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और इसके साथ ही राज्य में सत्याग्रह शुरू हुआ। यह सत्याग्रह 18 मार्च, 1939 तक चला और करीब पांच महीने के बाद एक समझौते के बाद जमना लाल बजाज व उनके साथियों को रिहा कर दिया।

कोटा प्रजा मण्डल की स्थापना 1936 में की गई। इस संस्था द्वारा साक्षरता, दवाईयों की आपूर्ति, सिंचाई के लिए जल की आपूर्ति आदि कुछ अन्य प्रस्ताव भी पारित किए गए। कोटा प्रजा मण्डल ने उत्तरदायी शासन के लिए हड़ताल व सत्याग्रह भी किए। अलवर एवं भरतपुर में 1938 में प्रजा मण्डलों की स्थापना की गई। बीकानेर में 1936 और 1942 में प्रजामण्डलों की स्थापना के प्रयास किए गए लेकिन वे राज्य की नीतियों के कारण असफल हो गए।

जैसलमेर में महारावल की दमनकारी नीतियों के कारण वहां तो कोई संगठन बनाना अत्यन्त कठिन कार्य था। सागर मल गोपा ने अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए आवाज उठाई। जब 1939 में प्रजा मण्डल की स्थापना हुई तो उस पर पाबन्दी लगाई गई। 1941 में सागर मल गोपा को गिरफ्तार किया गया। जेल में तीन अप्रैल, 1946 को उनकी मृत्यु हो गई।
-भाषा



 

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