जयपुर। हस्तिनापुर जिला मेरठ से 37 कि मी की दूरी पर और दिल्ली से सौ किमी की दूरी पर स्थित है। यह मेरठ- बिजनौर रोड से जुड़ा है। यह स्थान राजसी, भव्यता, शाही संघर्षो और महाभारत के पांडवों और कोरवों के रियासतों का साक्षात गवाह है। विदुर टीला, पांडेश्वर मंदिर, बारादरी,द्रोणादेश्वर मंदिर, क र्ण मंदिर,द्रोपदी घाट आदि जैसे स्थल पूरे हस्तिनापुर मंे फैले हुए हैं। हस्तिनापुर जैन श्रद्धालुओं के लिए भी काफी प्रख्यात हैं। वास्तुकला के विभिन्न मान्यताओं के केन्द्र भी यहां पर भ्रमण योग्य है। जैसे जम्बू द्बीप मंदिर एवं कैलाश पर्वत जैन मंदिर का पूरा परिसर देखने योग्य है। हस्तिनापुर सिख समुदाइयों के लिए भी एक बड़ा मान्यता का केन्द्र है। क्योंंकि यह पंच प्यारे भाई धर्म सिंह का जन्म स्थल माना जाता है। पवित्र एवं एतिहासिक स्थान के अतिरिक्त हस्तिनापुर वन्यजीव के लिए भी काफी प्रख्यात है। क्यों कि यहां पास में अभ्यारण वनस्पति की विभिन्न जातियों से सुसज्जित है। साथ ही वन्य जीव पर्यटन एवं एडवेंचर, ईको टूयरिज्म में आनंद का खासा मसाला है।
हस्तिनापुर का नाम आते ही शकुनी का पांसा और चौरस का खेल भी याद आता है। अगर शकुनी का पांसा ना होता तो महाभारत ही नहीं होता। हस्तिनापुर के पांडव टीले की खुदाई के दौरान मिले पांसे की रिसर्च की जा रही है। इस पांसे के साथ- साथ उत्खनन के दौरान बीस से ज्यादा मुहरें भी मिली है। राजा के नाम लिखी मुहरें मिलने पर एएसआई की टीम में खुशी है। खुदाई मिले पांसा और मुहरें मिलने से लोग इस बात की भी चर्चा है कि जिससे दुर्योधन के मामा शकु नी खेला करते थे ।
हस्तिनापुर में पांडव टीले पर उत्खनन में मिला यह पांसा कौतुहल देश भर में चर्चित हो चुका है। ये पांसा हाथी के दांत यानी आईबीओआरवाई से बना हुआ है। एएसआई के प्रभारी गणनायक का कहना है कि ऐसा पास कोई अमीर आदमी ही इस्तेमाल कर सकता है। इस बारे में भू-गर्भ वैज्ञानिकोें का यह भी कहना है कि ये पांसा गुप्त कालीन हो सकता है और 1500 साल पुराना हो सकता है। सूत्र कहते हैं कि उत्खनन को लेकर ये बात यकीनी तौर पर कही जा सकती है कि हस्तिनापुर में वैदिक संस्कृति की झलक है। वो कहते हैं कि हस्तिनापुर को आईक्रॉनिक साइट के विकसित किया जाएगा। गौर तलब रहे कि एक बार फिर 1952 के बाद हस्तिनापुर की धरती की धरती पर सात साल बाद उत्खनन हो रहा है। एएसआई की टीम हस्तिनापुर के अलावा 16 जिलों में साइटस को भी फोकस किया जा रहा है।
हस्तिनापुर की किवंदती के अनुसार सम्राट भरत के समय में पुरूवंशी वृहत्क्षत्र के पुत्र राजा हस्ति्न हुए जिन्होने अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई। कहा जाता है कि हस्तिनापुर से पहले उनके राज्य की राजधानी खांडवप्रस्थ हुआ करती थी। लेकिन जल प्रलय के कारण यह राजधानी उजड़ गई तब राजा हस्ति ने नई राजधानी बनाकर उसका नाम हस्तिनापुर रखा।
कहते हैं कि हस्तिन के बाद अजामीढ, दक्ष, संवरण और कुरू क्रमानुसार हस्तिनापुर में राज्य करते रहे। कुरू वंश में ही आगे चल कर राजा शांतनु हुए जहां से इतिहास ने करवट ली । शांतनु के पौत्र पांडु और धृतराष्ट्र हुए। कौरवोें ने मिल कर राज्य के बंटवारे के लिए महाभारत का युद्ध किया। पुराणों में यह भी कहा गया कि जब गंगा की बाढ के कारण यह राजधानी नष्ट हो गई थी। तब पाण्डव हस्तिनापुर को छोड़ कर कोशाम्बी चले गए। राजा हस्तिन के पुत्र अजमीढ को पंचाल का राजा कहा जाता है। तो पंचाल में उनके समकालीन राजा सुदास का शासन था। राजा सुरदास का संवरण से युद्ध हुआ था, जिसे कुछ विद्बान ऋगवेद में वर्णित दाशराज्ञ युद्ध से जाना जाता है। राज सुदास के समय पांचाल राज्य का विस्तार हुआ। उनके बाद संवरण के पुत्र कुरू ने शक्ति बढा कर पंचाल राज्य को अपने आधीन कर लिया। तभी यह राज्य संतुक्त रूप से कुरू पंचायत कहलवाया। परंतु कुछ समय के बाद ही पंचाल पुर: स्वतंत्र हो गया। पुरातत्वों के उत्खनन से ज्ञात होता है कि हस्तिनापुर की प्राचीन बस्ती लगभग एक हजार साल पहले ईसा पूर्व से पहले की है। दूसरी बस्ती लगभग 90 ईसा पूर्व में बसाई गई थी। जो 300 ईसा पूर्व तक रही। तीसरी बस्ती 200 ई.पूवã से तक विद्धमान रही। अंतिम बस्ती 11 वी से 14 वी शती तक विघमान रही । अब यहां कहीं- कहीं बस्तियों के अवश्ोष मिलते हैं। भूमि में दफन पांडवों का विशालकाय एक किला भी है जो देखरेख के अभाव में नष्ट होता जा रहा है। इस किले के अंदर अनेक पुराने मंदिर जो कि शानदार शिल्प व चित्रकला से युक्त हैं।
हस्तिनापुर के अलावा देश के अन्य स्थलों पर भी एतिहासिक जैन मंदिरों की जानकारी मिली है। दिगम्बर जैन पंचायत के मंत्री कमल जैन कहते हैं कि उनके समय में कोई मंदिर का सौ साल पूरा सौभाग्य की बात होती है। मंदिर बनवाने वाले तो पुण्य के भागी है, आज पांच सौ परिवार पूजाकर पुण्य के भागीदार बन रहे हैं। मंदिर के साथ पूरे समाज की भावनाएं जुड़ी होती है। सम्म्देद शिखर राची उनका द्बार माना जाता है। जहां मंदिर होता है वही जैन समाज की भावनाएं जुड़ी होती है।
देश भर में मंदिरों का निर्माण कराने वाले सरावगी परिवार के वंशज आरके सरावगी के अनुसार पूर्वजों ने मंदिर बनवा कर आने वाली पीढियों को सौभाग्य से परिपूर्ण कर दिया है। आज मंदिर के सौ साल पूरे होने पर आत्म संतुष्ठी होती है कि पूर्व जन्म में धर्मात्मा थे । उनकी बराबरी कोई भी नहीं कर सकता है।
यहां के रांची में 150 साल पहले राजस्थान के मुकंदगढ में जमुनादास जी छाबड़ा व्यवसाय केे सिलसिले में राची आए थे । अ पर बाजार में किराना की की दुकान से व्यवसाय आरंभ किए। इसके बाद जोधराज, कस्तूर चंद, जो राम, मुंगराज, बैजनाथ, रतन लाल, सूरजमल का परिवार राजस्थान से राची पहुंचे। इनमें
जमुनादास की ऐसी धाक थी कि अंग्रेज उनका सम्मान किया करते थे । जमुदास की चौथी पीढी राची मेंं है। उनके परपौत्र सुनील छाबड़ा आज सफल व्यवसायी है। हरमू में उनका नया घर है। सुनील के अनुसार उनके दादा चिरंजीलाल शुरूआती दिनों के कई किस्से सुनाया करते थ्ो। वे कहते थे कि अंग्रेजों की खूबी यह थी कि वे साधु- संतो का सम्मान किया करते थे । कई अंग्रेज उनकी दुकान से सामान लेने आया करते थे । जब अंग्रेजो को पाता चला कि वे शाकाहारी है तो समान छूना तो दूर दुकान में पांव तक नहीं रखते थे । जो सामान चाहिए था, वे दूर से ही मांग लिया करते थे ।