जयपुर। शहर की फुटपाथ पर फटेहाल लोगों की कोई कमी नहीं है। एक से एक दर्दनाक व्यथाएं का पिटारा साथ में लिए घूमते देखे जा सकते है । मगर सच यह भी है कि इन में भी पाखंडियों की कमी नहीं है। झूठ- मूठ क ी विकलांगता। कोई दिखाई दिया तो लंगड़ा कर चलने - फिरने लगेंगे। अकेले में उन पर नजर डालने पर उनका दूसरा ही रूप देखने को मिल जाता है। मगर यह व्यथा है, इन सभी में अलग है। जिसने भी देखा या सुना, हैरत में पड़े बिना नहीं रहता है।
पीड़ित बच्चे की उम्र दो साल की है। कई माह से वह कुपोषण का शिकार है। बच्चे का स्थाई पता मध्यप्रदेश का है। खरेला बुजर्ग गांव मंे इस परिवार का टूटा सा झोपड़ा है। ख्ोती की जमीन नहीं है। दूसरे के ख्ोत मंे पिता मजदूरी किया करते थ्ो। लॉक डाउन के समय जब वहां रोटियों के लाले पड़ने लगे तो, परिवार के सभी सदस्यों को मारे मजबूरी के जयपुर आना पड़ा। पिता चरण सिंह यहां जयपुर में खुली मजदूरी करता है। काम स्थाई नहीं है। मिल जाए तो उपरवाले का शुक्र है। वरना परिवार का पेट भरने के लिए बांगड़ इकाई के बाहर खड़ा मिल जाता है। पेट भर भोजन की आस में रोड़ पर आते - जाते वाहनों को आंख्ो फाड़ कर देखता रहता है। दर असल शहर के एक दानवीर सिख परिवार की ओर से रोज सुबह और सायं के समय सरदार जी की गाड़ी के नाम से उनका भोजन का वाहन आता है। चावल - दाल के अलावा चपाती भी निशुल्क मिल जाती है। फिर क्वालिटी भी ठीक - ठाक है। फुटपाथी ढाबोे से तो बेहतर भोजन मिल जाता है। उसी से परिवार का पेट भरा रहता है।
गरीब परिवार में सबसे छोटा कुपोषित बालक अमित की बदकिस्मती यही है कि वह जब पैदा हुआ तब जयपुर में लॉक डाउन था। पिता चरण सिंह की रोटी छिन चुकी थी, ऐसे में अपनी बीबी और नवजात बेटे का पेट नहीं भरपाया। इसी की परिणिति रही, कि उसकी यह औलाद कुपोषित अवस्था में पैदा हुई है। अमित से मुलाकात सायं के समय हुई थी। एसएमएस अस्पताल की बांगड़ इकाई के मुख्य द्बार के सामने वाले ग्राउंड में...। अपने पिता के साथ बैठा हुआ है। चाय की थड़ियां और बिस्कुट और टॉफियां बेचने वालों क ी दुकानोंे के बीच, किसी अपने का चेहरा खोज रहा है।
बच्चे के पिता खुद की हालत दयनीय हो चुकी है। पचास साल की उम्र में ही चेहरा झुर्रियों से भर गया है। सफेद रंग की दाढी बढी हुई है। पहनने को परिधान बुरी कदर फटे हालत में हैं। कमीज के बटन टूटे होने पर गर्म लू के थपेड़े सीने पर सीध्ो वार करते है। अभागे पिता से जब बातचीत हुई तो एक बारगी तो वह सक पकाया। कहता था... फंसा मत देगा हमें। यहां फुटपाथ पर एक से एक खतरनाक लफंगे मंडराते रहते है। अमीरों के ठिकानों तक उनकी पहुंच नहीं है, ले देकर फुटपाथी गरीबों को ही अपना शिकार बनाया जाता है। किसी का आटा तो किसी का तेल। जो भी मिला, लेकर चम्पत। भूख्ो पेट की जंग चलती रहती है।अमित के पिता के चेहरे पर गुस्सा झलकता है। गीड़ से भरी आंखों को चारों ओर घुमाकर, नजरें जमीं की ओर गढा देता है। ना मालुम क्या खयालात थ्ो उसके दिमाग में। कोई पांच मिनट के बाद, अपनी दर्द व्यथा सुनाने लगता है। अध्ोड़ सख्स के निकट ही कोई महिला भी बैठी है। जर्दे की पीक मुंह से पिचका कर, बार- बार एक ही बात दोहराती है... आप हैं कौन? आपका परिचय क्या है। हम फुटपाथी पहले ही परेशान है। चलो जाओ यहां से। ना मालुम कहां- कहां से आ जाते है।
बात महिला से संबंधित नहीं है, दो साल के बच्चे की है। बातचीत के बीच लगता है, वह भी अमित की निकट की रिश्तेदार है। कोई दस- बारह मिनट की गपशप में एक बात काम की सामने आती है। पहली बात... अमित जब अपनी मां के गर्भ में था, तभी उसकी मां बीमार पड़ गई थी। रूखा- सूखा भोजन भी वक्त पर नहीं मिला। यही हो सकता है, अमित की मानसिक और शारीरिक की हाल ही की अवस्था का। बालक अमित का स्वभाव विचित्र है। ना किसी से बोलता है ना ख्ोलता है। हर वक्त अपने पिता से चिपका रहता है। यही समस्या है, इस परिवार की। घर के बुजुर्ग मजदूरी के लिए बाहर जाते नहीं हैं, जब कि सांझ ढलते ही वह चॉकलेट की डिमांड करता है। बालक के चेहरे में भोलापन दिल को कचोटता है। हालात की कुछ ऐसे बन गए हैं कि कुपोषण के चलते बाहर की खुशियों से उसका कोई लेना- देना नहीं है।
अमित की मैडिकल हिस्ट्री के मुताबिक उसका आरंभिक उपचार शहर के बच्चों के जे के लॉन अस्पताल में चला था। वहां के मॉल न्यूट्रेशन वार्ड मेंं कई सप्ताह तक भर्ती रहा। समय पर भोजन और दूध- फल मिल जाने पर उसके चेहरे में कुछ सुधार आने लगा था। तभी चिकित्सकों का कहना था कि केवल दवाओें से काम नहीं चलने वाला। बच्चा एनिमिक है। जान बचाने के लिए इसे ब्लड की दो युनिट तुरंत ही दी जानी आवश्यक है। ब्लड डोनेट करने की बात सुनकर उसके पिता अपना चेहरा छिपाने का प्रयास करता है। चिकित्सक के प्रेशर के बाद भी एक ही बात दोहराता है, साहब... कहां से लाएं ब्लड। खाने पीने को हमें मिलता ही क्या है। खून देने का मतलब शरीर में कमजोरी आना लाजमी है। इस बारे में चिकित्सकों की दलीलों को वह अनसुना कर देता है।
बच्चे के पिता चाहते हैं, गरीब परिवार का केस होने के नाते बीमार बच्चे को ब्लड अस्पताल की ओर से ही दिया जाए। कई दिनों की झिकझिक के बाद बच्चे का उपचार कर रही मैडिकल टीम एक नए प्रस्ताव पर विचार करने के लिए तैयार हो जाती है। प्रस्ताव के मुताबिक एक युनिट ब्लड बच्चे के परिजन की ओर से दिया जाए। दूसरी यूनिट अस्पताल के ब्लड बैंक से उपलब्ध करवाई जा सकती है। अमित के परिवार मेंं ब्लड कौन देगा? कैसे देगा, इस बारे में बीमार बच्चे का दोष क्या है। खून के विवाद के चलते अमित का उपचार बीच में रूक गया है। अस्पताल से छुटटी कर दी गई है। इस पर उसकी हालत में और अधिक गिरावट आ गई है। ब्लड डोनर के मामले में जयपुर में कोई कमी नहीं है। मगर बात उन तक पहुंचाने की है। कई दिनों के बाद भी इसमें कोई प्रगति नहीं हो सकी है।