परंपराए, संस्कृति धर्म को अलग अलग धर्मों में अलग-अलग शब्दों से जाना जाता है, वहीं उर्दू के रिवाज़ शब्द को हिन्दी में परंपरा और अंग्रेजी में ट्रेडिशन के नाम से जाना जाता है। हिन्दू धर्म में ऐसी हजारों परंपराएं हैं जिनका संबध सीधे तौर पर धर्म से लगाया जाता है। और इसी को आधार मानकर इनकी आलोचना की जाती है।
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अधिकांश लोगों का यही मानना है कि रिवाजों के बनने के पीछे धर्म का बहुत बड़ा हाथ होता है, जबकि हकीकत में यह बिल्कुल गलत है। धर्म पर जगह का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। एक ही धर्म को मानने वाले एक से अधिक देशों में एक जैसे ही धार्मिक नियमों का पालन किया जाता है। वहीं रिवाज़ों की उत्पत्ति लोक कथाओं, संस्कृति, विश्वास,रहन-सहन, खान-पान आदि के आधार पर होती है।
इसीलिए रिवाज़ों पर उनका अनुसरण करने वाले परिवेश का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। दरअसल लोगों की जिंदगी से संबंध रखने वाला काम रिवाज होता है। जैसे खाने के वक्त हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए और हमें अन्य लोगों के साथ कैसा बर्ताव रखना चाहिए। हमारा रहन-सहन, खानपान, पहनावा कैसा हो आदि।
हालांकि बहुत से ऐसे रिवाज़ ऐसे भी हैं जो पुराणों में वर्णित के आधार भी समाज में प्रचलित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए हमारे समाज में बहुत से रिवाज ऐसे हैं जो हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार सही नहीं है, जैसे सती प्रथा, दहेज प्रथा,मूर्ति स्थापना और विसर्जन, माता की चौकी, अनावश्यक व्रत-उपवास और कथाएं, पशु बलि, 16 संस्कारों को छोड़कर अन्य संस्कार आदि।
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इसलिए इनमें समय समय पर सुधार की जरूरत पड़ती रहती है। रिवाज को धर्म से जोड़ना पूर्णतया विवेकहीन विचार है। अधिकतर रिवाज तो अंधविश्वास के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। जो हजारों वर्षों की परंपरा, भय और व्यापार के कारण समाज को में प्रचलित हो गए हैं। इसीलिए ये रिवाज आज कोई धार्मिक मायने नहीं रखते। इनसे केवल समाज में दूषित मानसिकता का ही जन्म होता है।
धर्म को कुछ इस तरह से समझा जा सकता है। हिंदू धर्म के अनुयायी सभी जगह पूजा ही करते हैं। इसी तरह विश्व के किसी भी हिस्से में चले जाने पर भी इस्लाम धर्म को मानने वाला नमाज ही अदा करता है। जबकि जगह के अनुसार भारतीय हिंदू और नेपाली हिंदू के शादी करने की रस्मों में अंतर साफ तौर पर देखा जा सकता है।
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